Monday 12 September 2016

मीना बाजार शुरू हुआ था अकबर के काम वासना के लिए

मीना बाजार लगभग सभी लोग जाते होंगे पर इसका इतिहास जरूर जानना चाहिए। भारत के ज्ञात इतिहास में कामुक वृत्ति के दो चरित्र मिलते हैं। एक मांडव का गयासुद्दीन और दूसरा अकबर। इनमें भी अकबर ने गयासुद्दीन को बहुत पीछे छोड़ दिया। गयासुद्दीन के पथ पर आज भी सभी मुस्लिम चलते हैं यानी सिर्फ हिन्दू लड़कियों को शिकार बनाओ मुस्लिम को नहीं। लेकिन, अकबर ने तो मानवता की सारी मर्यादाएं तोड़ दी थीं। क्या शत्रु, क्या मित्र, क्या हिन्दू, क्या मुसलमान, क्या प्रजा, क्या दरबारी, किसी की सुंदर बहन-बेटी इस 'कामी कीड़े' की वासना से नहीं बच पाई थी।

मुस्लिम प्रजा के साथ-साथ हिन्दुओं ने भी परदा प्रथा को अपना लिया था। इस कारण बुरके और घूंघट में छिपी सुंदर स्त्रियों को ढूंढ निकालना आसान नहीं था। दरबारियों के जनानखाने सुंदर हिन्दू, मुसलमान महिलाओं से भरे पड़े थे। दरबारियों की कन्याएं भी जवान हो रही थीं, किंतु परदे की ओट में थीं। धूर्त अकबर ने अपने दरबारियों और प्रजा की सुंदर महिलाओं को खोजने का एक आसान उपाय निकाला। उसने राजधानी में मीना बाजार लगाने की परंपरा डाली।

अकबर का मीना बाजार : आगरे के किले के सामने मैदान में मीना बाजार लगना प्रारंभ हुआ। शुक्रवार को पुरुष वर्ग तो पांच बार की नमाज में व्यस्त रहता था। इस दिन किले में और किले के आसपास पुरुषों का प्रवेश वर्जित था। सारे मैदान में महिलाएं दुकान सजाकर बैठती थीं और महिलाएं ही ग्राहक बनकर आ सकती थीं।

अकबर का आदेश था कि प्रत्येक दरबारी अपनी महिलाओं को दुकान लगाने के लिए भेजे। नगर के प्रत्येक दुकानदार को भी हुक्म था कि उनके परिवार की महिलाएं उनकी वस्तुओं की दुकान लगाएं। इस आदेश में चूक क्षम्य नहीं थीं। किसी सेठ और दरबारी की मीना बाजार में दुकान का न लगाना अकबर का कोपभाजन बनना था।

धीरे-धीरे मीना बाजार जमने लगा। निर्भय बेपरदा महिलाएं खरीद-फरोख्त को घूमने लगीं। अकबर की कूटनियां और स्वयं अकबर स्त्री वेश में मीना बाजार में घूमने लगे। प्रति सप्ताह किसी सेठ या दरबारी की सुंदर महिला पर गाज गिरती। वह अकबर की नजरों में चढ़ जाती अकबर की कूटनियां किसी भी प्रकार उसे किले में पहुंचा देतीं।
कुछ तो लोकलाज का भय, कुछ पति के प्राणों का मोह, लुटी-पिटी महिलाओं का मुंह बंद कर देता। साथ ही अन्य महिलाओं द्वारा यदि पुरुषों तक बात पहुंचती भी तो मौत के डर से मन-मसोसकर रह जाते। अस्मतें लुटती रही और मीना बाजार चलता रहा।

कभी-कभी कोई अत्यंत सुंदर स्त्री अकबर को भा जाती और वह उसके घर वालों के संदेश भिजवा देता कि डोला हरम में भिजवा दें। यदि स्त्री विवाहित हुई तो उसके पति को तलाक के लिए बाध्य करता। इस प्रकार कई दरबारियों की कन्याएं और विवाहिताएं आगरे के किले में लाई गईं। उच्च वंश के शाह अबुल माली और मिर्जा शर्फुद्दीन हुसैन जैसे लोगों की महिलाएं भी अकबर की वासना की शिकार बनी थीं। इन्हीं दिनों एक शेख की पत्नी अकबर की निगाह में चढ़ गई। अकबर ने शेख पर दबाव डाला कि अपनी पत्नी को तलाक दे दे ताकि मैं उसे अपने हरम में डाल सकूं। न तो शेख अपनी पत्नी को छोड़ना चाहता था, न उसकी पत्नी ही इस पशु के पास जाना चाहती थी।

आगरा के और भी 10-12 परिवारों की महिलाओं को अकबर अपने हरम में डालना चाहता था। आखिर आगरा के चुनिंदा मुसलमान दर‍बारियों की एक गुप्त बैठक हुई जिसमें अकबर की हत्या की योजना बनाई गई। शर्फुद्दीन का एक हिन्दू गुलाम था फुलाद, बाड़मेर का रहने वाला, ऊंचा-पूरा, कद्दावर जवान आबूमाली के मित्र शर्फुद्दीन ने उसे अपनी गुलामी से मुक्त किया और बदले में अकबर को मार डालने का वचन लिया।

सदा अंगरक्षकों से घिरे रहने वाले अकबर को तलवार या भाले से मारना संभव नहीं था। बंदूकें उस समय बारूद की एक नाल या दो नाल की हुआ करती थीं, जिनसे एक या दो बार ही फायर किया जा सकता था। तब निर्णय हुआ कि तीर से अकबर को मारा जाए। तीर भी अधिक दूरी से मारना था, इस कारण मजबूत कमान की जरूरत पड़ी ताकि तीर शरीर के भीतर तक पैठ सकें। फुलाद ने तीरंदाजी के अभ्यास में कई धनुष तोड़ डाले, फिर एक लोहे का बना कन्धहारी धनुष उसे दिया गया, लोहे के धनुष से अभ्यास के बाद घातक दल अवसर की ताक में रहने लगा।

आगरा में तो काम बना नहीं। पता लगा जनवरी 1564 में अकबर शेख निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जियारत के लिए जाना चाहता है। घातक दल के लोग जनवरी के प्रथम सप्ताह में दिल्ली पहुंच गए और उपयुक्त स्थान की तलाश कर घात लगाकर बैठ गए। औलिया की दरगाह के मार्ग में माहम अनगा द्वारा निर्मित एक दुमंजिला मदरसा भी था। इसी मदरसे की छत पर फुलाद तीरों का तरकश लेकर जा बैठा। माहम अनगा के पु‍त्र आदम खां को किले की दीवार से गिराकर अकबर ने मरवाया था और पुत्र के गम में कुछ दिन बाद अनगा भी मर गई थी। अनगा का परिवार भी अकबर के खून का प्यासा था और हत्या-योजना में शामिल था।

11 जनवरी 1564 को अकबर ने औलिया की दरगाह पर जा दर्शन किए। अकबर दरगाह से लौट रहा था। उसके अंगरक्षक बिखरे हुए थे। कुछ तो साथ थे कुछ आगे बढ़ गए थे और कुछ दरगाह में प्रार्थना के लिए रुके थे। अकबर जैसे ही मदरसे के नीचे आया, एक सनसनाता तीर आकर उसका कंधा बिंध गया। अकबर जोर से चीख पड़ा। अंगरक्षकों ने उसे अपनी ढालों की ओट में ले लिया और तीर की दिशा में निगाहें दौड़ाईं। देखा तो मदरसे की छत से ए‍क विशालकाल व्यक्ति तीर बरसा रहा है। सन्नाते तीर अंगरक्षकों की ढालों से टकरा रहे थे। लोग मदरसे की ओर तलवारें सूंत दौड़ पड़े। फुलाद के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए।

अंगरक्षक घुड़सवारों ने अकबर की सवारी के मार्ग में आने वाले सभी बाजार बंद करवा दिए। प्रत्येक घर के खिड़की-दरवाजे बंद करवा दिए गए। घरों की छतों पर मुगल निशानेबाज बैठा दिए गए। इस प्रकार पूर्ण सुरक्षा के साथ अकबर दिल्ली के महल में लाया गया। तीर काफी भीतर तक धंस गया था और लगातार खून बह रहा था। कुशल जर्राहों (सर्जन) ने कंधे से तीर निकला। दस दिन तक हकीमों से इलाज करवा अकबर पालकी में बैठ आगरा लौटा। गहरे घाव के कारण वह घोड़े की सवारी के अयोग्य था और हाथी की सवारी में निशानेबाजों का खतरा था। (स्मिथ पृष्ठ 61)

मौत के भय ने अकबर को झकझोर दिया था। उसने बलात लोगों की पत्नियां छीनना तो बंद कर दिया, लेकिन मीना बाजार चलता रहा और महिलाओं की आबरू लुटती रही। फर्क इतना था कि औरतें हमेशा के लिए हरम में रोकी नहीं जाती थीं। एकआध दिन या कुछ घंटों के बाद छोड़ दी जाती थीं।

महाराणा की भतीजी जब आयी मीना बाजार में तो अकबर की छाती पर चढ़ बैठी, इसकी कहानी लगभग सबने पढ़ी ही है।

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