Tuesday 31 January 2017

आशु परिहार ने सच कहा तो निकला फतवा

भारत के मुस्लिमों के खिलाफ आशु परिहार ने ऐसा कुछ नहीं कहा जो सच नहीं है... उसने गलती सिर्फ यही किया कि उसने ये बात वीडियो के माध्यम से कही... जो एक पक्के सबूत के रूप में सामने save हो गयी.... उसने बंगाल में हो रहे इस्लामीकरण के बारे में कहा... ममता बनर्जी को जिहादी आतंकवादी बताया... और मुहम्मद के साथ उसकी बेटी का निकाह याने रेप बतलाया...

समस्या सिर्फ यहीं पर हुयी... मुहम्मद ने 9 साल की बेटी के साथ जब निकाह किया तो आशु जी के साथ मेरी नजरों में भी वो बलात्कार था... लेकिन मुस्लिम कह रहे हैं.. ये "रेप" वाला शब्द क्यों कहा गया ?

इसमें फतवा और जान से मारने की जगह मुस्लिम को ये साबित करना चाहिए कि 9 साल की बेटी सेक्स के लिए पूरी तरह से तैयार थी... उसने बेटी से निकाह किया .. इसपर तो खुद मुसलमानो को भी आपत्ति नहीं है... बल्कि आपत्ति है सिर्फ कि उसे रेप क्यों कहा.. ?

आपत्ति तो मैं भी कर रहा हूँ कि उसे रेप क्यों ना कहा जाए ? ? मैं संविधान के हवाले से कह रहा हूँ कि ये रेप था.. अगर ये भारत में हुआ होता तो पुलिस मुहम्मद को गिरफ्तार करके मुकदमा चलाती या नहीं चलाती ? मुहम्मद को इस देश का कानून सजा देता या नहीं देता... ? अगर कोई भी आदमी आज किसी 9 साल की बच्ची के साथ रेप करे तो रेपिस्ट है या नहीं है..? ? अगर इसी संविधान और कानून के मुताबिक आशु परिहार ने कह दिया तो वो कानूनन तो गलत हो नहीं सकती ... सरकार अगर उसपर कार्रवाई करती है मुसलमानो के दवाब में तो कोर्ट में आशु को पूछना चाहिए कि ...
"मी लार्ड 9 साल की बच्ची के साथ हमबिस्तरी... रेप कहा जाएगा या मनमर्जी से किया गया सेक्स ? ? जज साहब आपका कानून जो कहता है वही मैंने आम जीवन में कह दिया तो क्या गलत था? "

जज कहेगा... " आपने फिर भी नहीं कहना चाहिए इससे धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं... "

"लेकिन ऐसे धर्म को क्या आप धर्म मानने को राजी है ? कोई कल होकर एक मजहब खड़े कर दे.. जिसमे चोरी डकैती बलात्कार लूट दंगा सारी ऐसी बुराई शामिल हो जिसके लिए पुलिस उसको पकड़ सकती है .. गोली मार सकती है... और आप उसे कारावास दे सकते हैं... तो क्या आप मुझसे ये कहेंगे कि वो भी किसी का धर्म है इसलिए उसकी इज्जत करो... अगर मुझे इज्जत करना है तो फिर आप भी करो... जज होने के नाते आप उसे सजा मत दो.. उन सारे कामों को आप भी जायज बताओ... आपको भी दूसरे के धर्म की धार्मिक भावनाएं आहत नहीं करनी चाहिए... सिर्फ मैं ही क्यों ?.....
जज साहब जिस गलत काम को आप गलत कहते हो।। जिन हालातों में आप किसी को रेपिस्ट कहते हो उसी को मैं क्यों नहीं कह सकती ? क्या मैं कानून के खिलाफ बोलूं ?"

Monday 30 January 2017

भारत की बर्बादी में सबसे बड़ा योगदान किसका ?

भारत ये था... वो था... ऐसा इतिहास था...वो सब ठीक है.. लेकिन आज क्या है ? ?
क्या आपने ध्यान दिया है कि भारत किस वजह से.... किन लोगों की वजह से.... और कब से पिछड़ना शुरू हुआ है ? ? 

जब मुग़ल भारत में आये तो किसलिए आये थे... सोने की चिड़िया कहलाने वाली भारत को लूटने ही आये थे ना... याने 700- 800 साल पहले तक भारत का हरेक आदमी संपन्न तो था ही..

फिर अंग्रेज आ गए... लेकिन वो किसलिए आये थे ? ? ...... उन्होंने भी तो यही सुना था कि भारत सोने की चिड़िया है... मुग़ल लूट रहे हैं ... तो चलो अब हम भी लूटेंगे ... याने अंग्रेज के समय तक भारत में काफी ज्यादा धन था... मुग़ल सैकड़ों सालों तक लूट कर भी अंग्रेजों के आने तक भारत का धन खत्म नहीं कर पाए थे.....

मुग़ल और अंग्रेजों ने जब लूटा तो भारत के लोगोँ के पास से संपत्ति निकल गयी... और इससे भारत गरीब नहीं हुआ, बल्कि भारतीय गरीब होते गए... क्योंकि इसी देश में आपके पैसे जमीन जायदाद उन्होंने हथिया लिए.... भारत अभी भी अमीर था लेकिन भारत में रहने वाले मुग़ल और अंग्रेज अमीर थे... आप नहीं।

लेकिन इसके बाद जब वो लोग गए तब कांग्रेस ने मुसलमानों के साथ मिलकर भारत को ऐसा लूटा... जो हज़ार साल में नहीं हुआ वो हो गया.. भारत ही गरीब हो गया... नदी लूट ली... जमीन का पानी खत्म कर दिया... शुद्ध हवा छीन ली... रहने की जमीन तक नहीं बची... और देश का सारा असल पैसा स्विस बैंक में डाल आये...

1000 सालों के इस लूट में एक बात common है... चाहे जिसने भी .... और जिस काल में भी भारत को लूटा पर मुस्लिम सभी समय उस लूट में शामिल रहे... पहले मुग़लों के साथ (जो कि ये खुद थे)... अंग्रेजों के साथ.. और फिर कांग्रेस सपा बसपा राजद तृण मूल के साथ... और आज भी वो देश लूट रहे हैं... बर्बाद कर रहे हैं... ... अगर आप ऐसे सोचोगे तो समझ आएगा.. कि समस्या कि जड़ में कौन बैठा है ....

इसका इलाज सिर्फ एक हो सकता है... ट्रम्प-नीति.... पहले चरण में ... किसी भी मुस्लिम का देश में आना बंद करो... और दूसरे चरण में सबको बाहर करो... आप देखना अमेरिका में ये दूसरा चरण भी आने वाला है... हाँ ... ट्रम्प के उठाये कदमो से जब अमेरिका को अभूतपूर्व फायदा पहुंचेगा तब दुनिया के सारे गैर मुस्लिम देशों को सोचने और करने पर मजबूर होना ही पड़ेगा।।

Saturday 28 January 2017

हमें झुकना ना पड़े इसके लिए पद्मावती ने जौहर किया

भाइयों जरा सोचिए.. 16 हज़ार स्त्रियों का जलती आग में प्रवेश कर जाना... ये कितना हृदयविदारक दृश्य रहा होगा... उन सभी स्त्रियों के पति, बच्चे... सारे पुरुष कैसे अपनी माँ बहन आदि को उस तरह से जलते और हमेशा के लिए बिछुड़ते देख पाए होंगे... ? ?
रानी पद्मावती ... नहीं चाहती थीं कि उनके आने वाले हिन्दू बच्चे को कोई मुसलमान ये कह कर चिढ़ाए कि तेरी राजपूत रानी के साथ... हमारे लोगों ने जीतने के बाद बलात्कार किया या हरम में कैद करके रखा....

हमारी माँ पद्मावती ने ऐसा इसलिए किया ताकि हम और आप गर्व से सर उठा कर बोलें कि जान दे दी पर अपने सतीत्व की रक्षा की...

आज संजय लीला भंसाली उस बलिदान का मजाक बनाना चाहते हैं... संजय लीला भंसाली सारे हिंदुओं के मुंह पर कालिख पोतना चाहते हैं... ये आदमी हमसबको मुसलमानों की नजरों में गिराना चाहता है... जानते हैं इस तरह के सीन को.. गाने को .. तस्वीर को... कल होकर मुल्ले सोशल मीडिया में डाल कर हमें अपमानित करेंगे, चिढायेंगे.... और कहेंगे... ये देखो तेरी क्षत्रिय रानी हमारे खिलजी के साथ... गाने गा रही है...

क्या आप बर्दाश्त कर पाएंगे ? जरुरत है कि सारे हिन्दू संगठन इसपर बैठक करें और भारत में कहीं भी इस फिल्म की शूटिंग ना होने दें....

Friday 27 January 2017

मैंने लिखना क्यों शुरू किया

मैं एक साधारण सा आम आदमी हूँ... किसी भी विषय के पीछे उसका आंकड़ा खोजने नहीं जाता.. न ज्यादा ईस्वी और तारीख निकालने बैठता हु और ना ही बहुत वजनदार शब्दों को जानता हूँ.. मुझे हमेशा से लगता था कि जो सामने हो रहा है अगर उसकी वजह साफ़ है.. आरोपी सामने है तो उसको लिखने और बोलने के लिए इतना ड्रामा क्यों ? सीधा बोलो.. और दैनिक जीवन की जो भाषा आती है उसी में बोलो ताकि वो सबको अपने जैसी लगे...

जब टीवी पर और अखबारों में किसी विषय पर कुछ पढता तो दिमाग भन्ना जाता था.. क्योंकि दस पेज तक विषय की व्याख्या, इतिहास, दोष, फायदे, निदान आदि सब लिखकर भी ये नहीं लिख पाते थे कि इस्लाम ही आतंकवाद है और मुस्लिम ही आतंकवादी होते हैं... वामपंथी याने कंम्यूनिस्ट पार्टी ही नक्सलवादी है... पुलिस ही अपराधियों की सबसे अच्छी दोस्त है और कोर्ट में बैठा जज ही सबसे ज्यादा अन्याय करता है...

पूरा सेमीनार खत्म.. पूरी बैठक खत्म... घंटों चला टीवी का डिबेट भी खत्म.. स्टिंग ऑपरेशन भी खत्म ... पूरा का पूरा 2000 शब्दों का संपादकीय भी खत्म ... और सुनने, देखने , पढ़ने वाले का धैर्य भी खत्म लेकिन उस विषय का निचोड़, रस.. मुख्य आरोपी का कहीं अता पता ही नहीं.... ये देख कर हमेशा सोचता था कि इस विषय पर मैं बोल पाता.. अगर चार लोग भी सुन लेते तो मेरे अंदर का गुबार निकल जाता.. और इन मठाधीशों को औकात दिखा देता...

मुझे पता नहीं था ये मौका सोशल मीडिया से मिलेगा... लेकिन मिला.. दो साल तक पहले दूसरों को पढ़ा. . उनसे सीखा... लेकिन नक़ल नहीं की... खुद से सोचना शुरू किया ... मुझे लगा ये लोग भी बहुत सारे विषय हैं जो छोड़ देते हैं.. जैसे कोई सिर्फ धर्म पर ही लिखता है, कोई राजनीती के ही पीछे पड़ा है.. कोई नास्तिक बना बैठा है... मुझे हर चीज पर बोलना था, समझना था... बताना था... अपनी बात रखनी थी... वास्तव में मैं आम जीवन में इतना कम बोलता हूं कि शायद किसी को यकीन भी ना हो.. लेकिन दिल में तो इतनी बातें थी.. कि बस... कुछ लोग जो फ्रेंडलिस्ट में हैं वो चिढ़ते भी हैं.. कुछ मेरे एक शब्द की गलती पर मौके की ताक में रहते हैं .. ऐसा होता है.. ये ईर्ष्या की भावना.. ये लाइक्स, कमेंट की प्रतिद्वंदिता होती है.. पर मैंने इसके लिए नहीं लिखा... कभी लाइक्स नहीं भी मिले पर मैंने फिर भी पोस्ट हटाया नहीं.. मुझे जो अच्छा लगता है मैं पोस्ट करता हूँ.. आज मैं अपने पोस्ट को फेसबुक में नहीं बल्कि गूगल में सर्च मारता हूँ और वो मिल जाती है... जिनकी आईडी या पेज मैंने सुना तक नहीं... वहाँ भी मेरी वो पोस्ट पड़ी होती है... मुझे इससे ज्यादा क्या चाहिए... कि लोग सच का साथ देते हैं।

Thursday 26 January 2017

कुछ हिन्दू बहुत जल्दबाजी में हैं..

कुछ हिन्दू बहुत ही जल्दबाजी में हैं.. मोदीजी की सरकार क्या आयी कि सब लोग दो ही साल में भारत से इस्लाम को उखाड़ फेंकना चाहते हैं... राम मंदिर अभी दो तीन महीने में बना लेना चाहते हैं... सबकुछ के लिए बीजेपी को दोषी ठहराने लगते हैं.. तुरंत कश्मीर खाली चाहिए... एकाध हफ्ते में ममता को सूली पर टांग कर बंगाल से सबको बंग्लाद्देश शिफ्ट करना चाहते हैं....

क्या ऐसा संभव है ? मुस्लिम 1947 से अपनी रणनीति पर काम कर तहे हैं तब जाकर कश्मीर , बंगाल, असाम सहित हजारों गाँव मोहल्ले से हिंदुओं को भगा पाये हैं .. और आपने तो अभी दो साल से ही समझना और लड़ना शुरू किया है...

इस दो या तीन साल में ही उनके 70 साल की आधी रणनीतिक विजय को हम लोग बर्बाद कर चुके हैं... राम मंदिर रातों रात नहीं बन सकता.. बाबरी मस्जिद को गिराने में दो से चार घंटे लगे होंगे.. क्या चार या चालीस घंटों में भी राम मंदिर बन जायेगा ? कहने का मतलब उसी तरह घेराबंदी ्करके हमले करते हुए भी नहीं बनाया जा सकेगा.... ये तभी संभव है जब कानूनन इजाजत मिले... इसके लिए राज्य सरकार को कोर्ट में हिंदुओं की तरफ से पैरवी करनी होगी.. कहना होगा कि राज्य की जनता यही चाहती है.. वहाँ पाये गए सारे सबूतों को हिंदुओं के पक्ष में खड़ा करना होगा... क्या ये काम मायावती और अखिलेश करेगा .. ?

ये सब साधारण बात है जो किसी को भी समझ में आती है.. लेकिन जान बूझकर बीजेपी के विरोध में खड़े होकर ये लोग क्या हासिल करना चाहते हैं पता नहीं...

Friday 20 January 2017

पाकिस्तान नहीं बनता तो हिन्दू समाप्त हो गए होते

कुछ हिंदूवादी इस बात पर बहुत रोते हैं कि भारत का विभाजन हो गया.. पाकिस्तान बन गया.... लेकिन अगर पाकिस्तान नहीं बनता तो क्या आज यहां हिन्दू जीवित होते ? सिर्फ विभाजन को लेकर जब मुसलमानो ने भारत में चारों तरफ दंगे शुरू किये थे तब गली गली में हिंदुओं की लाशें बिछा दी थीं.. (इसमें दलित भी थे)...
कभी सोचा है आपने 1947 से अबतक उनकी जनसंख्या क्या हो गयी होती ? ?
1947 में भी ये बची खुची जनसंख्या ही थी... जो आज मुसीबत बन गयी है...
जब उसी वक़्त विभाजन के पहले इन्होंने अपनी असलियत दिखा दी थी ... लाखों हिंदुओं को मार डाला था.. तो उसी वक़्त हिंदुओं को इतनी दूरदृष्टि हो जानी चाहिए थी कि आगे जा के फिर क्या होने वाला है ? ये तो कहना ही पड़ेगा कि हिन्दू इस मामले में एक मुर्ख संप्रदाय है।

आज वो थोड़े से लोग जब ज्यादा हुए तो कश्मीर लिया, बंगाल लिया, केरल लिया, और यूपी, बिहार की बारी है... ये सच्चाई है, इसको नकारना सच से मुकरना है... ये थोड़े से लोग ? ? लेकिन अगर आज पुरे पाकिस्तान के लोग यहां होते तो ? सारे बड़े आतंकी नेटवर्क भारत में होते, बड़े बड़े डॉन यहीं होते...विश्वप्रसिद्ध आतंकवादी भारत में होते... ना जाने कितने लीडर और शायद pm भी वही होते तो क्या लगता है आपको आज हिन्दू यहां होते ? बचे होते क्या ? मुझे तो नहीं लगता... शायद अस्तित्व खत्म हो गया होता... उसी हाल में होते जैसे पाकिस्तान में हैं.. एक्का दुक्का... याने हिंदुओं का पन्ना खत्म हो गया होता.. अरे आज जब ये थोड़े से बचे हुए मुस्लिम नहीं सम्भलते तो पूरे पाकिस्तान के यहां घुसे होने की स्थिति में क्या होता ? ?

विभाजन गलत था.. लेकिन हिंदुओं के अस्तित्व के लिए एक मौका भी था.. जैसे उधर पाकिस्तान में हिंदुओं को खत्म कर दिया गया वैसे ही इधर हिंदुओं को भी वैसी प्रक्रिया अपनानी चाहिए थी... ये मौका था.. बहुत कम उनकी जनसंख्या थी... आजादी के बाद से ही निपटना शुरू करते तो अबतक शायद कहानी खत्म हो गयी होती...

मेरे हिसाब से तो विभाजन हिंदुओं को तात्कालिक रूप से नयी जिंदगी दे गया... और ये मुसलमानों के लिए बड़ी बेवकूफी थी.. क्योंकि अगर उन्होंने विभाजन नहीं किया होता तो आज पूरा भारत उनके हाथों में होता और एक इस्लामिक राष्ट्र होता।

Wednesday 11 January 2017

मन्त्रों का विज्ञान से नाता है क्या ?

ज्यादातर लोग आजकल मन्त्र तंत्र आदि में विश्वास नहीं करते, इसकी वजह है आज का विज्ञान.. दूसरी वजह है मंत्रो के बारे में  हद से ज्यादा कल्पनातीत कहानियों का बनाया जाना । अब लोगों को लगता है कि अगर मन्त्र से ये होता है तो ये करके दिखाओ, या वो करके दिखाओ या बॉर्डर पर जाकर मन्त्रों से लड़ो आदि आदि।

पहले तो ये कहना अच्छा होगा कि मन्त्रों का प्रयोग हिन्दू(सिख आदि सभी) ही नहीं मुस्लिम और ईसाई के साथ बौद्ध भी करते हैं। खैर, 

कभी आपने सोचा है कि शब्दों से बने कुछ गानों पर आपके अंदर अलग अलग ऊर्जा जागती है या नहीं ? चलो ठीक है रोमांटिक गाने से प्रेम का भाव आता है ? दुःख के गानों से अचानक सबकुछ नीरस सा लगने लगता है ? अच्छा कुछ ऐसे गाने जो आपको पसंद ना हो तो सरदर्द भी करने लगता है और आप चीख पड़ते है कि .. बंद करो ये गाना... पर आपके अंदर इतने तरह की अलग अलग ऊर्जा सिर्फ शब्दों की वजह से क्यों पैदा हो जाती है ? सकारात्मक भी और नकारात्मक भी।

ये सब शब्दों का कमाल होता है,  उस शब्द ने जो ऊर्जा पैदा की है उससे आप प्रभावित होते हैं.. ।। शब्दों को उच्चारण करने से हवा में तरंग बनती है... तरंगों का झुण्ड किस तरफ जायेगा. .. कैसी शक्तियों से मिलेगा ये उस तरंग के प्रकार पर निर्भर है।

ये तो मानते हैं ना कि शब्द जो है वो ध्वनि पैदा करता है... ध्वनि देखा नहीं जाता लेकिन होता है ? ? विज्ञानं ही तो बता रहा हूँ.. तेज ध्वनि में तो इतनी ताकत होती है घरों के शीशे टूट जाते हैं.. कान के परदे फट जाते हैं.. तो क्या आपने देखा कि कान के परदे फाड़ने वाली ध्वनि कैसी थी ? दीखता तो वो अपने इस प्रचंड रूप में भी नहीं है।।

अगर कोई ध्वनि आपके कान के परदे फाड़ सकता है तो आपको बेहोश नहीं कर सकता ? बाजार में "mosquito repeller" नाम से एक यंत्र मिलता है.. उसको लाइए. . घर में लगा दीजिये... उससे एक सीमित मात्रा में एक ख़ास ध्वनि निकलती है जो आपको सुनाई नहीं देगी पर सारे मच्छर भाग जायेंगे... उसको सुनाई पड़ता है और वो बरदाश्त नहीं कर पाता। ध्वनि का प्रभाव है तो.. भई विज्ञान की बात कर रहा हूँ मैं...

मन्त्रों से आपको बेहोश किया जा सकता है.. मन्त्रों से पानी को अलग तरह का बनाया जा सकता है और खाने को भी.. अच्छा और बुरा दोनों... ध्वनि की तरंगें वातावरण के अच्छे और बुरे प्रभाव को सोखती हैं... अपने में मिलाती है या भगा देती है.. या उसकी दिशा मोड़ कर आपके तरफ लाती है किसी दूसरे के ऊपर छोड़ देती है...

ये शून्य.. ये हवा.. कोई रिक्त स्थान नहीं है... आपको दीखता नहीं वो अलग बात है पर उसी रिक्त या अदृश्य या खाली सी जगह .. पर मन्त्र काम करता है क्योंकि आँखों के ना देख पाने की वजह से जिस चीज का उपयोग हम नहीं कर पा रहे उस चीज से हम मन्त्रों के माध्यम से संवाद करते हैं।

बाकी ये सब एक ज्ञान का विषय है कि कौन से शब्द .. कौन सी ध्वनि.. कैसा उच्चारण... होना चाहिए... इसके जानकार कौन हैं... कहाँ है... कितने लोग ऐसे आज बचे हैं... और फिर वही बात है कि इससे सबकुछ नहीं होता , थोड़ा बहुत होता है.. फिर मंत्र है कोई गोली बम नहीं कि उठाया और पटक दिया. .. समय लगता है.. उच्चारण होता है.. उसे साधना पड़ता है ... बाकी तो ऐसा है कि मानो या ना मानो... कोशिश थी विज्ञानं की दृष्टि से समझाने की..

Monday 9 January 2017

अतिभयंकर सेक्युलर दोस्त को मिली शिक्षा

आज एक भयंकर सेक्युलर दोस्त घर आ गया...
वो बार बार अब्दुल कलाम , अशफाकुल्ला, हमीद आदि की दुहाई दे रहा था... इसने कहा ..
"आखिर कुछ लोग जो अच्छे हैं उनको बाकी गलत मुसलमानों की वजह से तकलीफ क्यों हो ? "

मैंने कहा..
"भई तो जिसके बारे में आप कह रहे हो वो तो आलरेडी मर चुके हैं.. वर्तमान के किसी ऐसे मुस्लिम के बारे में बताओ.."

"वो.. वो.. होगा ही ।। कहीं ना कहीं होगा कोई.. लेकिन कुछ एक दो तो अच्छे हैं ना यार"

"अच्छा तो उस एक दो के चक्कर में बाकि करोडो बुरे लोगों को बर्दाश्त करें..? इस एक दो के चक्कर में बाकियों के हाथों क़त्ल हो जाएं, क्योंकि ये तो बचाएंगे नहीं.. ?

"अरे नहीं.. देखो आपकी बात ठीक है लेकिन एक दो लोग अच्छे भी हैं यार.. "

(दोस्तों इस बीच मैंने उसे अपने यहां खाने पर बुलाया था.. दाल बन चूका था.. एक डब्बे में चावल बहुत समय से रखा था.. उसको निकाला तो देखा कीड़े लगे हुए है.. रंग भी बदल गया था, सड़ गए थे.. )

मैंने वो चावल का डब्बा उतारा और उस दोस्त को दे दिया... और कहा..

"भई ये चावल है ढेर सारा.. इसका बनाओगे क्या चावल आज "?

उसने देखा तो मुझे कहा..
"पागल हो क्या.. ये क्या है सबके सब सड़े हुए, कीड़े लगे.. "

"अरे तो क्या हुआ भाई.. ध्यान से देखो ना उसमे एक दो चावल के दाने में कीड़े नहीं लगा है, साफ़ है.. चढ़ा दो सबको..."

"अबे यार.. एक दो चावल के अच्छे होने से ये चावल खाने लायक नहीं हो जाएगा ना. ये सारा ही घर से बाहर फेंकना पड़ेगा.. ये अच्छे वाले 10 दाने का चावल नहीं बन सकता... समझे..."

मैंने धीरे से कहा..
" वही तो कह रहा हूँ.. समझे .... ?"

Sunday 8 January 2017

सोमनाथ मंदिर स्थापना के समय नेहरू और राजेंद्र प्रसाद में हुयी थी जोरदार टक्कर

11 मई, 1951 को स्वाधीन भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने पुनर्निर्मित सोमनाथ मन्दिर में शास्त्रोक्त विधि से जलाभिषेक द्वारा शिवलिंग की प्राणप्रतिष्ठा की। द्वादश ज्योतिर्लिंगों के लिए शास्त्रों की व्यवस्था का पालन करते हुए इस अवसर पर भारत के प्रत्येक भाग से मिट्टी, सभी पवित्र नदियों का जल और कुशाघास लाया गया था।
श्री मुंशी के अनुसार, "सम्पूर्ण पृथ्वी की एकता एवं मानव जाति के भ्रातृत्व के प्रतीक स्वरूप वि·श्व के सभी भागों से नदियों का जल, मिट्टी और कुशा घास को मंगाने का प्रयास किया गया था।

महमूद गजनवी से लेकर औरंगजेब तक अनेक बार ध्वंसित एवं अनेक बार सर उठाकर खड़े होने वाले इस पवित्र सोमनाथ ज्योतिर्लिंग की पुन: प्राणप्रतिष्ठा के इस ऐतिहासिक प्रसंग का दर्शन करने के लिए गुजरात एवं पूरे भारत से विशाल जनसमुदाय प्रभास तीर्थ में उमड़ पड़ा था। "जय सोमनाथ' के नारों से आकाश गूंज रहा था। पूरे देश भर में उत्साह की लहर दौड़ गयी थी।

इस अवसर पर डा. राजेन्द्र प्रसाद ने जो लिखित भाषण दिया वह स्वाधीन भारत की प्रेरणा, जीवन-दर्शन और भावी स्वप्न को प्रस्तुत करने वाला अद्भुत दस्तावेज है। उस समय देश के सभी समाचार पत्रों ने उसे पूरा छापा, पर आश्चर्य की बात है कि सरकारी पत्रिकाओं में उसे स्थान नहीं दिया गया। भारत के नवोन्मेष की घोषणा करने वाले इस विशाल समारोह की भारत सरकार की आकाशवाणी ने पूर्ण उपेक्षा की। राष्ट्रपति के भाषण और भारत सरकार की स्वीकृति से निर्माण हुए सोमनाथ मन्दिर की प्राणप्रतिष्ठा के महत्वपूर्ण कार्यक्रम की सरकारी तंत्र द्वारा यह उपेक्षा क्यों? सरकारी तंत्र अचानक सोमनाथ मन्दिर के पुनर्निर्माण की अपनी ही योजना के प्रति उत्साह क्यों खो बैठा?

30 जनवरी, 1948 को गांधीजी का शरीरान्त और 15 दिसम्बर, 1950 को सरदार पटेल का देहावसान स्वाधीन भारत की यात्रा में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हैं। इनसे भारत की यात्रा की दिशा ही बदल गयी। स्वाधीन भारत के निर्माण में सरदार पटेल के महती योगदान का स्मरण करते हुए राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने अपने भाषण के अन्त में कहा, "नवनिर्माण का यह यज्ञ स्वर्गीय वल्लभभाई पटेल ने शुरू किया था। भारत की विच्छिन्नता को पुन: एकजुट करने में उनका निर्णायक हाथ था।

सोमनाथ मन्दिर के पुनर्निर्माण की कहानी को स्पष्टत: दो खण्डों में विभाजित किया जा सकता है। एक, 13 नवम्बर, 1947 में सरदार पटेल की सोमनाथ यात्रा से लेकर 15 दिसम्बर, 1950 को उनकी मृत्यु तक। और दूसरा उनकी मृत्यु से 13 मई, 1965 तक जब 21 तोपों की सलामी के साथ श्री सोमनाथ मन्दिर के 155 फुट ऊंचे शिखर पर ध्वजारोहण के साथ कलश प्रतिष्ठा और प्रासादाभिषेक संस्कार सम्पन्न करके भवन निर्माण कार्य पूरा हो गया। सरदार पटेल की मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री पद पर आसीन जवाहरलाल नेहरू ने सोमनाथ मन्दिर के प्रति जो आक्रामक एवं विरोधी रुख अपनाया, उससे स्पष्ट हो गया कि सरदार पटेल की इच्छा के विरुद्ध नेहरू अपनी अध्यक्षता में आयोजित मंत्रिमण्डलीय बैठकों में सोमनाथ मन्दिर की निर्माण योजना के विरोध में अपना मुंह नहीं खोल पाए।

13 नवम्बर, 1947 से फरवरी, 1950 तक निर्माण, खनिज और ऊर्जा मंत्री रहे नरहरि विट्ठल गाडगिल (काकासाहेब गाडगिल) ने मंत्रिमण्डल के सामने मन्दिर निर्माण के सम्बंध में जो भी योजनाएं रखीं उन पर मंत्रिमण्डलीय स्वीकृति की मुहर लगवाते रहे। फरवरी, 1950 में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, जो वस्तुत: सोमनाथ मन्दिर की पुनर्निर्माण योजना के प्रेरक मस्तिष्क थे, संभवत: सरदार की इच्छा से नेहरू मंत्रिमण्डल में सम्मिलित कर लिए गए। खाद्य व कृषि मंत्री का दायित्व संभालते हुए भी वे मन्दिर निर्माण की योजना को पूरे मनोयोग से आगे बढ़ाने लगे। पं. नेहरू की विचारधारा को ये लोग भलीभांति समझते थे।

सरदार की मृत्यु के कुछ मास पहले ही कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए नेहरू के प्रत्याशी को हराकर वे अपनी विचारधारा का प्रभाव प्रकट कर चुके थे। सरदार जैसे प्रभावशाली व्यक्तित्व के चले जाने के बाद नेहरू ने गांधी और पटेल की राष्ट्र-दृष्टि एवं विचारधारा के विरुद्ध प्रधानमंत्री पद से प्राप्त अपनी पूरी ताकत झोंक दी। और इस वैचारिक शक्ति-परीक्षण की रणस्थली बन गया सोमनाथ मन्दिर का पुनर्निर्माण।

मुंशी जी नेहरू जी की विचारधारा और राजनीतिक श्ौली को अच्छी तरह समझते थे। अत: वे नेहरू की ओर से आने वाले विरोध के प्रति पूरी तरह सावधान थे। सरदार पटेल जीवित होते तो मन्दिर निर्माण का प्रथम चरण पूर्ण होने पर गर्भगृह में शिवलिंग की प्राणप्रतिष्ठा वे स्वयं करते, किन्तु अब वे नहीं थे। अत: मुंशी जी ने राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद से प्रार्थना की कि वे इस कार्य को सम्पन्न करें। उन्होंने राष्ट्रपति से आ·श्वासन मांगा कि कितना भी विरोध होने पर भी वे प्राणप्रतिष्ठा करने के अपने वचन का निर्वाह करेंगे। डा. राजेन्द्र प्रसाद ने आ·श्वासन दिया कि यह शुभ कार्य उनके मनोनुकूल है। वे इसमें अवश्य सम्मिलित होंगे। इस हेतु यदि उन्हें राष्ट्रपति पद छोड़ना पड़ा तो भी वे पीछे नहीं हटेंगे। वे अग्निपरीक्षा में कूद पड़े।

राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद से यह आ·श्वासन मिलने के बाद सोमनाथ मन्दिर न्यासी के अध्यक्ष के नाते सौराष्ट्र संघ के राज्यप्रमुख और जामसाहब नवानगर श्री दिग्विजय सिंह ने राष्ट्रपति के नाम औपचारिक निमंत्रण पत्र भेज दिया। डा. राजेन्द्र प्रसाद ने संवैधानिक औपचारिकता को पूरा करने के लिए 2 मार्च, 1951 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को पत्र द्वारा सूचित किया कि मैं जामसाहब नवानगर के निमंत्रण को स्वीकार करने में आपत्ति का कोई कारण नहीं देखता, क्योंकि मैं मन्दिरों एवं अन्य धर्मों के पवित्र स्थलों में जाता रहा हूं। नेहरू ने उसी दिन राष्ट्रपति को पत्र भेजकर अपना विरोध सूचित किया। उन्होंने लिखा कि "सोमनाथ मन्दिर के धूमधाम भरे उद्घाटन समारोह से आपका जुड़ना मुझे कतई पसन्द नहीं है...मेरे विचार से सोमनाथ में बड़े पैमाने पर भवन निर्माण के लिए यह समय उपयुक्त नहीं है। यह काम धीरे-धीरे हो सकता था, बाद में इसमें तेजी लायी जा सकती थी, लेकिन यह किया जा चुका है। मैं सोचता हूं कि आप इस समारोह की अध्यक्षता न करते तो अच्छा होता।'

डा. राजेन्द्र प्रसाद ने 10 मार्च को नेहरू के पत्र का उत्तर देते हुए स्पष्ट कर दिया कि उस समारोह में सम्मिलित होने के लिए वे वचनबद्ध हैं, वैसे भी यह उनकी भावनाओं के अनुकूल है। उन्होंने लिखा कि "सोमनाथ मन्दिर का बहुत अधिक ऐतिहासिक महत्व है। साथ ही यह निमंत्रण पत्र सौराष्ट्र संघ के राज्यप्रमुख, जो न्यासी मण्डल के अध्यक्ष भी हैं, की ओर से आया है। अत: उसे अस्वीकार करना उचित नहीं होगा।' बौखलाए हुए नेहरू ने पहले तो चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का हस्तक्षेप आमंत्रित करने की कोशिश की। अगले दिन 11 मार्च को राजगोपालाचारी के नाम लम्बे पत्र में उन्होंने इस विषय पर डा. राजेन्द्र प्रसाद के साथ अपने पिछले पत्राचार का वर्णन करते हुए कहा कि, "राष्ट्रपति इस समारोह में जाने के लिए बहुत उत्सुक हैं, अत: मैं नहीं सोच पा रहा हूं कि क्या मेरे लिए यह आग्रह करना उचित होगा कि वे वहां न जाएं? मैं आपकी सलाह चाहूंगा। अन्यथा मैं उन्हें लिख दूंगा कि वे अपने विवेकाधिकार का उपयोग करने के लिए स्वतंत्र हैं। यद्यपि मैं अभी भी सोचता हूं कि उनका वहां न जाना ही बेहतर होगा।' राजगोपालाचारी ने नेहरू जी के समर्थन में हस्तक्षेप नहीं किया। इसलिए नेहरू ने 13 मार्च, 1951 को राजेन्द्र बाबू को पत्र लिखा कि "मैं आपको अपनी प्रतिक्रिया से पहले ही अवगत करा चुका हूं, किन्तु यदि आप उस निमंत्रण पत्र को अस्वीकार करना उचित नहीं समझते तो मैं अपनी बात पर अधिक जोर नहीं देना चाहूंगा।' इस प्रकार डा. राजेन्द्र प्रसाद की दृढ़ इच्छाशक्ति के सामने नेहरू को हथियार डालने पड़े और राजेन्द्र बाबू ने जामसाहब नवानगर को अपनी औपचारिक स्वीकृति सूचित कर दी।

किन्तु नेहरू जी सोमनाथ मन्दिर के पुनर्निर्माण में बाधा डालने के रास्ते खोजते रहे। संयोग से चीन में भारत के राजदूत सरदार के.एम. पणिक्कर ने उन्हें मनचाहा अवसर प्रदान कर दिया।

हम पहले ही बता चुके हैं कि शास्त्रीय विधान का पालन करते हुए जामसाहब नवानगर ने विदेश मंत्रालय से परामर्श करके सभी भारतीय दूतावासों को पत्र लिखकर प्रार्थना की कि वै·श्विक एकता के प्रतीक स्वरूप वे इस अवसर के लिए जिस देश में हैं, वहां की प्रमुख नदियों का जल, उस देश की मिट्टी और वहां की कुशाघास भेजने की कृपा करें। अधिकांश राजदूतों ने इस प्रार्थना को पूरा किया। उनके समाचार भी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए।

किन्तु पणिक्कर ने विदेश मंत्रालय को पत्र लिखकर पूछा कि इस खर्चे को हम किस मद में डालेंगे। 21 मार्च को उन्होंने नेहरू जी को भी पत्र लिखा कि इससे चीन की सरकार हमारे बारे में क्या सोचेगी। हमारी छवि क्या बनेगी? पाठकों को शायद स्मरण हो कि यही पणिक्कर साहब हैं, जिन्होंने तिब्बत के साथ चीन के सम्बंधों की व्याख्या करने वाले दस्तावेज में सुजरेन्टी (देख-रेख) शब्द की जगह "सोवरेन्टी' (प्रभुसत्ता) शब्द लिखकर तिब्बत पर चीन के आक्रमण का रास्ता साफ कर दिया था और तिब्बत की वर्तमान त्रासदी को जन्म दिया। पणिक्कर चीन के कम्युनिस्ट शासकों को प्रसन्न करना देश की अस्मिता की रक्षा से अधिक महत्व देते थे।

पणिक्कर का पत्र पाते ही नेहरू जी ने सोमनाथ मन्दिर पर अपना हमला तेज कर दिया। 17 अप्रैल, 1951 को उन्होंने पणिक्कर को उत्तर दिया कि "सोमनाथ मन्दिर धंधे के बारे में तुम्हारे विचारों से मैं पूर्णतया सहमत हूं। यह सब कुछ ऊटपटांग हो रहा है। मैंने राष्ट्रपति को इस कार्य के मुख्य सूत्रधार व संरक्षक मुंशी (क.मा.) को अपने विचार साफ-साफ बता दिए हैं। मैंने तो राष्ट्रपति को वहां न जाने के लिए भी कहा, किन्तु देर हो जाने के कारण उन्हें रोक पाना मेरे लिए संभव नहीं था। इसलिए उनकी वहां जाने और वहां जो कुछ भी वे करेंगे, उसके प्रभाव को अधिक से अधिक कम करने की कोशिश कर रहा हूं।'

क्या थीं ये कोशिशें? उसी दिन नेहरू जी ने राजगोपालाचारी को पत्र लिखकर अपनी हताशा व्यक्त की। उन्होंने लिखा, "मैं पणिक्कर का पत्र आपको भेज रहा हूं साथ ही बर्मा की कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में उनका नोट भी। उन्होंने सोमनाथ मन्दिर के झमेले के बारे में जो लिखा है उसकी ओर मैं आपका ध्यान विशेष रूप से आकर्षित करना चाहता हूं। मैं इस बारे में बहुत परेशान हूं, किन्तु सोच नहीं पा रहा कि क्या करूं? यह अचम्भे की बात है कि लोग दूतावासों को नदियों का जल भेजने के लिए लिखें।'

सोमनाथ मन्दिर के विरुद्ध नेहरू जी ने अपनी रणनीति में चार सूत्र अपनाए-

प्रथम-बार-बार यह दोहराना कि सोमनाथ मन्दिर का पुनर्निर्माण भारत के पंथनिरपेक्ष चरित्र के अनुकूल नहीं है। यह हिन्दू पुनरुत्थानवादी कार्य है। इससे विदेशों में भारत की छवि खराब होगी।

द्वितीय-सोमनाथ मन्दिर की पुनर्निर्माण योजना का भारत सरकार से कोई सम्बंध नहीं है। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में यह विषय कभी भी नहीं आया और न केन्द्रीय मत्रिमण्डल ने इसके लिए स्वीकृति दी। सरदार पटेल, न.वि. गाडगिल और क.मा. मुंशी मंत्री के नाते अपनी व्यक्तिगत हैसियत से इस योजना में भाग ले रहे थे।

तृतीय-राष्ट्रपति को उसके प्राणप्रतिष्ठा समारोह में नहीं जाना चाहिए और सौराष्ट्र राज्य संघ के राजप्रमुख श्री दिग्विजय सिंह को सोमनाथ मन्दिर ट्रस्ट की अध्यक्षा नहीं रहना चाहिए।

चतुर्थ-सोमनाथ मन्दिर के उद्घाटन समारोह का सरकारी तंत्र पर प्रचार नहीं होना चाहिए।

17 अप्रैल को ही नेहरू जी ने खाद्य एवं कृषि मंत्र क.मा. मुंशी को पणिक्कर के पत्र का हवाला देते हुए पत्र लिखा कि "पणिक्कर से यह प्रार्थना किन्हीं व्यक्तियों ने निजी तौर पर की होती तो कोई बात नहीं थी किन्तु इस प्रार्थना को भेजने वाले लोग सरकार का अंग हैं, और राष्ट्रपति के नाम का भी उल्लेख किया जा रहा है इससे हमारी स्थिति विदेशों में खराब होगी। मुझे लगता है कि हमारे लोग यह नहीं समझते हैं कि विदेशी लोग हमारे कुछ विचारों और कार्यों को किस रूप में देखते हैं। मैं इस कार्य से बहुत अधिक परेशान हूं। मुझे बताइए कि और किन-किन दूतावासों को आपने पत्र भिजवाए हैं मुझे उनको भी पत्र लिखने होंगे।'

इन्हीं दिनों किसी समाचार पत्र ने छाप दिया कि सौराष्ट्र सरकार सोमनाथ मन्दिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह पर पांच लाख रुपए खर्च करने जा रही है। यद्यपि सौराष्ट्र सरकार ने तुरन्त ही इसका खण्डन कर दिया, तथापि नेहरू जी ने इस अपवाद को ही अपने आक्रमण का हथियार बना लिया। 21 अप्रैल, 1951 को उन्होंने सौराष्ट्र राज्य संघ के मुख्यमंत्री श्री यू.एन. ठेबर को पत्र लिखकर इसका स्पष्टीकरण मांगा। उन्होंने यह भी लिखा कि, "सोमनाथ मन्दिर का चाहे जितना महत्व हो, सरकार का इससे कुछ लेना-देना नहीं है। उसके लिए धनसंग्रह की जिम्मेदारी निजी व्यक्तियों की है। सरकारी धन को इस तरह खर्च नहीं किया जाना चाहिए।' अगले दिन 22 अप्रैल को उन्होंने राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद को फिर एक पत्र लिखा कि "मैं सोमनाथ मामले से बहुत अधिक परेशान हूं। जैसा कि मुझे भय था, हमें यह राजनीतिक महत्व का बनता जा रहा है। विदेशों में भी इसकी चर्चा हो रही है। इसके प्रति हमारी नीति की आलोचना में कहा जा रहा है कि हमारे जैसे सेकुलर सरकार एक ऐसे समारोह से अपने को कैसे मोड़ सकती है जो अन्य बातों के अलावा पुनरुत्थानवादी चरित्र का है। मुझे पार्लियामेंट में प्रश्न पूछ जा रहे हैं और मैं उनके उत्तर में कह रहा हूं कि सरकार का इससे कोई सम्बंध नहीं है और जो लोग उससे किसी भी रूप में जुड़े हैं वे अपनी निजी हैसियत से ऐसा कर रहे हैं।' जामसाहब जो सोमनाथ ट्रस्ट के अध्यक्ष, राजप्रमुख भी हैं और उसकी दोनों भूमिकाओं को अलग-अलग देख पाना कठिन ही है। हमारे कई दूतावासों की स्थिति उनके पत्र के कारण विषय हो गयी है और उन्होंने कड़ा विरोध प्रकट किया है। कुछ विदेशी दूतावास भी पूछ रहे हैं कि यह सब क्या हो रहा है।' इस पत्र में नेहरू जी सौराष्ट्र सरकार 5 लाख रुपए होने के समाचार को भी उठाया। कहा कि देश भुखमरी के कगार पर है, हर तरफ से खर्च कम करने की कोशिश की जा रही है। तब भी एक राज्य सरकार केवल एक मन्दिर के प्राणप्रतिष्ठा समारोह पर 5 लाख रुपए खर्च करने की सोच सकती है।'

अपनी हताशा उंडेलते हुए उन्होंने लिखा कि "मैं नहीं समझ पा रहा कि इस विषय में मैं क्या करूं, किन्तु मुझे भारत सरकार को तो इससे बिल्कुल अलग करना ही होगा। पार्लियामेन्ट में और संभवत: प्रेस सम्मेलनों में उठाए गए प्रश्नों के उत्तर में मैं साफ-साफ कह दूंगा कि सरकार का इससे कोई सम्बंध नहीं है।'

उसी दिन उन्होंने क.मा. मुंशी और जामसाहब नवागर को पत्र लिखे। मुंशी को लिखा कि "विदेशों में यह धारणा पैदा हुई है कि सोमनाथ का प्राणप्रतिष्ठा समारोह का आयोजन सरकार कर रही है। मैं इससे बहुत परेशान हूं। मुझे से संसद में सवाल पूछे जा रहे हैं और मैं यह स्पष्ट करने जा रहा हूं कि सरकार का इससे कोई सम्बंध नहीं है। किन्तु सौराष्ट्र सरकार ने इस समारोह पर 5 लाख रुपए खर्च करने का निर्णय ले लिया है। मैं समझता हूं कि किसी भी सरकार के लिए किसी भी समय यह खर्च करना अनुचित है। मैं राष्ट्रपति और जामसाहब को भी इस बारे में पत्र लिख रहा हूं। दुर्भाग्य से जामसाहब ने सोमनाथ मन्दिर न्यास के अध्यक्ष हैं बल्कि सौराष्ट्र के राजप्रमुख भी हैं।' जामसाहब को लिखे गए लम्बे पत्र में उन्होंने दूतावासों को लिखे गए एक पत्र एवं 5 लाख रुपए के खर्च के बिन्दुओं को उठाते हुए कहा कि "मेरी वास्तविक कठिनाई यह है कि "राष्ट्रपति स्वयं इस समारोह में भाग लेने जा रहे हैं। मैं उनका ध्यान खींचा है कि इससे गलतफहमी पैदा होगी। किन्तु मैं इस मामले में उनके व्यक्तिगत रुझान में आड़े नहीं जाना चाहता।'

नेहरू ने लिखा कि सोमनाथ ट्रस्ट के अध्यक्ष होने के साथ-साथ सौराष्ट्र के राजप्रमुख भी हैं। स्वाभाविक ही, इससे विदेशी मस्तिष्क में भ्रम पैदा हो रहा है और वे ऐसे निष्कर्ष निकाल रहे हैं जिन्हें तथ्यों के प्रकाश में गलत नहीं कहा जा सकता।' उन्होंने चिन्ता जतायी कि पाकिस्तान इस मामले का भारी लाभ उठा रहा है। बेचारे अफगानिस्तान को भी एक झूठी कहानी के आधार पर इस विवाद में घसीट लिया गया है।' नेहरू जी ने फिर दोहराया कि जब भी मौका मिलेगा, मैं साफ-साफ कह दूंगा कि सरकार का इस समारोह से कोई रिश्ता नहीं है।

22 या 23 अप्रैल को नेहरू जी ने मंत्रिमण्डल में यह विषय उठाया और क.मा. मुंशी को दोषी ठहराने की कोशिश की। इसके उत्तर में मुंशी जी ने 24 अप्रैल को एक लम्बा पत्र नेहरू को लिखा जिसकी चर्चा हम अगले लेख में करेंगे। 22 अप्रैल को जामसाहब ने नेहरू जी को सोमनाथ मन्दिर के प्राणप्रतिष्ठा समारोह में पधारने का अनुरोध भेजा। उसके उत्तर में 24 अप्रैल को जामसाहब के नाम लिखे पत्र में नेहरू जी को यह लिखने का साहस नहीं हुआ कि मैं सैद्धान्तिक आधार पर आपके निमंत्रण को अस्वीकार कर रहा हूं बल्कि बहाना बनाया कि "इस कठिन समय में किसी भी कार्यक्रम के लिए दिल्ली से बाहर जाने की स्थिति में नहीं हूं।' किन्तु आगे चलकर उन्होंने अपने मन की बौखलाहट उड़ेल ही दी, "मैं इस पुनरुत्थान से और इस तथ्य से कि हमारे राष्ट्रपति, कुछ मंत्रीगण आप राजप्रमुख इससे जुड़े हुए हैं। मेरे विचार से यह हमारे राज्य की प्रकृति के अनुरूप नहीं है। इसके देश और विदेश में खराब परिणाम होंगे।'

24 अप्रैल को ही अपनी वि·श्वस्त मृदुला साराभाई के नाम एक पत्र में नेहरू जी ने अपनी हताशा को उड़ेला। उन्होंने लिखा कि सोमनाथ के मामले ने मुझे बहुत अधिक परेशान किया है। कुछ समय पहले मैंने राजेन्द्र बाबू से इस विषय पर बात की और पत्र भी लिखे। और अपने दृष्टिकोण को साफ शब्दांे में उनके सामने रखा। अब मैं उनके रास्ते में नहीं आना चाहता।' जहां तक सौराष्ट्र सरकार द्वारा 5 लाख रुपए खर्च करने का सवाल है वह शायद सही नहीं है और उसका राजेन्द्र बाबू से कोई ताल्लुक नहीं है।' नेहरू जी ने मृदुला साराभाई को राजेन्द्र बाबू से भेंट करके दबाव डालने की सलाह भी दी।

किन्तु राजेन्द्र बाबू पर इन सब दबावों का कोई असर नहीं हुआ और वे अपने निश्चय पर अडिग रहे। अन्तत: नेहरू जी सूचनामंत्री रंगनाथ दिवाकर को 28 अप्रैल को लिखित आदेश दे दिया कि रेडियो प्रसारण में सोमनाथ में होने वाले कार्यक्रम का वर्णन बहुत कम करके किया जाए और ऐसा आभास तनिक भी न पैदा होने दिया जाए कि वह कोई सरकारी कार्यक्रम था।' राजेन्द्र बाबू यह एक प्रकार से राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू की अग्नि परीक्षा ही थी जिसमें वे सफल होरक बाहर निकले।