Tuesday 1 November 2016

आखिर दूसरे देश के राष्ट्राध्यक्षों को हिन्दू स्मारक क्यों नहीं दिखाया जाता

हमारे देश की पहचान हिंदुओं के प्राचीन स्थल हैं लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि पहले ताजमहल और हुमायूँ का मकबरा दिखाया जाता था और अब गांधी जी का चरखा। भारत की संस्कृति तो सदैव से भारत के विशालकाय मन्दिरों, स्तूपों, विहारों, चैत्यों, स्थानकों तथा गुरुद्वारों में वास करती है।

अन्तरराष्ट्रीय सांस्कृतिक विरासत में भी मुख्यत: भारत के मन्दिरों को ही दर्शाया गया है। क्या कोणार्क का सूर्य मन्दिर,
खजुराहो के समूह मन्दिर,
महाबलिपुरम के मंदिर,
तंजाबुर का वृहदेश्वर मन्दिर,
मदुरै का मीनाक्षीपुरम मन्दिर ....
भारतीय संस्कृति का सही चित्र प्रस्तुत नहीं करते?

क्या अजन्ता,
एलोरा,
एलीफेन्टा,
उदयगिरि की गुफाएं ..... विश्व-कौतुहल तथा संस्कृति की मूल जानकारी देने के स्थल नहीं हैं?

क्या विजयनगर (हम्पी) के खण्डहर आज के अनेक नवनिर्मित नगरों से अधिक सुव्यवस्थित जानकारी नहीं देते?
सांची का स्तूप,
अशोक के अभिलेख,
बाहुबलि स्वामी की विशालकाय प्रतिमा,
सारनाथ में बुद्ध की अद्वितीय प्रतिमा ...... क्या भारतीय संस्कृति की सही जीवन दृष्टि नहीं दर्शाते हैं?

राम की जन्मभूमि अयोध्या,
कृष्ण की कर्मभूमि कुरुक्षेत्र,
विश्व को भारतीय संस्कृति से अवगत कराने वाले स्वामी विवेकानन्द का शिला स्मारक ...... क्या विश्व को आज भी आश्चर्यचकित तथा नतमस्तक होने को बाध्य नहीं करते?

पता नहीं क्यों जान बूझकर जब भी कोई भारत में बड़े देशों के राष्ट्राध्यक्ष या अतिथि आते हैं तो भारत के असली गौरव चिन्ह को नजरअंदाज किया जाता है, शायद इसलिए कि हिंदुओं की महानता, विशालता, पराक्रम आदि का बोध किसी को ना हो। अब तो हालात ये हैं कि भेड़चाल में खुद हिन्दू ऐसी जगहों पर ना जा के ताजमहल और अजमेर के ख्वाजा जैसी घटिया जगहों के चक्कर लगा कर अपने टूरिज्म को सम्पन्न कर लेते हैं।

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