Tuesday 1 November 2016

हिन्दू स्वाभिमान का प्रतीक विजयनगर साम्राज्य

19वीं शताब्दी में हुए तराईन के युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद संपूर्ण भारतवर्ष में हताशा और निराशा का जो अंधकार छा गया था, देवगिरि के यदुवंशी राजा रामचन्द्र (1271-1311) की पराजय के पश्चात और भी घना हो गया। अलाउद्दीन खिलजी ने इस वंश का सर्वस्व छीनकर इसे दर-दर का भिखारी बना दिया था। मजबूर होकर राजा रामचन्द्र ने मतांतरण कर लिया। देवगिरि राज्य का कत्लेआम विश्व का जघन्यतम कृत्य था। देवल देवी और खुसरो खान के पुन: हिन्दू होकर एक वर्ष तक राज्य करने के कालखंड (1320-1321) को छोड़ दें तो यह युग हिन्दू समाज के लिए पराजय और प्रताड़ना का युग था।

हरिहर और बुक्काराय का इतिहास

इसी युग में काकतीय वंश के कृष्णप्पा ने विजय नगर बसाया। उनके पुत्र हरिहर और बुक्काराय शिकार खेलने यहां आया करते थे और यहीं उन्होंने तपस्यारत विद्यारण्य स्वामी से दीक्षा ग्रहण करके इसे विद्यानगर के नाम से राजधानी बनाने का व्रत लिया था। कृष्णप्पा नायक की राजधानी वारंगल पर निजामशाही का अधिकार हो जाने के पश्चात वे कम्पली चले आये थे और वहां के राजा प्रताप रुद्र के यहां खजांची नियुक्त हुए थे। पर दिल्ली के सुल्तान की सेना कम्पली के राजा को पराजित करके हरिहर और बुक्काराय को दिल्ली ले आयी और इन्हें मुसलमान बना लिया गया। मुसलमान बनने से आश्वस्त होकर सुल्तान ने इन्हें कर्नाटक का सूबेदार बनाकर भेजा। पर वे विद्यारण्य के शिष्य थे, उनके प्रभाव में आकर पुन: हिन्दू बने और पहले तो अनेगुण्डी को अपनी राजधानी बनाया और फिर विद्यारण्य स्वामी के निर्देशानुसार हनुमान जी के जन्मस्थल हेमकूट के चारों ओर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की।

हरिहर और बुक्काराय के वंश की 12 पीढ़ियों ने 1336 से सन् 1485 तक शासन किया और हिन्दू राज्य की स्थिरता के विषय में समाज को अश्वस्त किया और दिखाया कि शस्त्र और शास्त्र दोनों में एक साथ प्रवीणता प्राप्त की जा सकती है। विद्यारण्य स्वामी कुदली श्रृंगेरी के शाखा मठ श्रृंगेरी के व्याख्यात पीठाधिपति होकर भी राजाओं के मार्गदर्शक रहे और अपने भाई सायण के साथ उन्होंने वेदों के उपासनापरक भाष्य में सहयोग भी दिया।

संगम वंश का उदय

हरिहर और बुक्काराय के तीन भाई कम्ब, मरपा और मुद्दप्पा थे। इनमें इतना प्रेम था कि सबने मिलकर अगला राजा कम्ब के पुत्र संगम (द्वितीय) और बाद में हरिहर (द्वितीय) को बनाया। पिता का नाम संगम होने के कारण यह वंश संगम वंश के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ। इन्होंने वारंगल के सूबेदार इमादुल मुल्क से लेकर दिल्ली के सुल्तानों तक से युद्ध किया। कभी हारे कभी जीते, पर अभिमान कभी नहीं किया और राज्य की सीमा पूर्व समुद्र से पश्चिमी समुद्र तक फैलाते गये। इसी समय में बहमनी, आदिलशाही, कुतुबशाही आदि राज्य स्थापित हो रहे थे, जिसमें तीन सुन्नी और दो शिया थे। इनमें परस्पर युद्ध हुआ करते थे। सन् 1366 से विजयनगर पर आक्रमण में 5 लाख लोग निहत हुए। मुहम्मद बहमनी ने कसम खाई थी कि वह 1 लाख हिन्दुओं को मारेगा।

संगम वंश का अंतिम राजा विरुपाक्ष (द्वितीय) अपने विलासी पुत्र के हाथों मारा गया। तत्पश्चात सरदारों ने चुनाव किया और सलुआ नृसिंह को राजा बनाया गया। इस वंश में सन् 1485 से 1505 तक सलुवा नृसिंह देव राय, तिम्म भूपाल और नृसिंह राय (द्वितीय) नाम से 3 राजा हुए। अंतिम राजा के जीवनकाल में ही राज्य का शासन एक अनुन्नत वंश के तेजस्वी सेनापति तुलुआ नरसा नायक के हाथों चला गया था। ये तुलुआ क्षेत्र के थे जो उत्तर कर्नाटक और गोआ के अन्तर्गत आता है। वहां से ये आंध्र के विभिन्न राज्यों मे फैले।

नृसिंह राय का कालखण्ड

इस्लामी शक्तियों से निरन्तर संघर्ष के बावजूद नरसा नायक को उत्तराधिकार में विशाल साम्राज्य मिला था। ये नायडू कुल की कापू शाखा के थे और गोत्र का निश्चित पता न होने के कारण इन्हें कश्यप गोत्र का माना जाता है। इम्मादि नृसिंह राय के पुत्रों ने शिलालेख लगवाया था कि-

आ: गंगातीर-लंका प्रथम कारम्

भूभृत ताड़ान्तम् नितान्तम्।

ख्यात:क्षोणीपति नाम स्रत्रभ

इव शीर्षा शासनं यो व्यतानीत।।

अर्थात उस समय उत्कल के राजा की सीमाएं बंगाल में गंगा को छूती थीं जो इम्मादि के करद राजा थे और लगभग 200 क्षत्रपों में से एक श्रीलंका में राज्य करते थे। एक अन्य शिलालेख, व्प्राज्ञ भुज भुजग सन्निहि तन्यश सबल हूता हित क्षितिपति रक्ताल्य नृसिंह नृप साम्राज्य रमाभरण सुकवि राजोद्वरणव् के अनुसार श्री नृसिंह साम्राज्य की विशालता का परिचय मिलता है। नृसिंह राय द्वितीय के जीवनकाल में ही ईश्वर नायक के पुत्र नरसा नायक के हाथों में शासन की बागडोर आ गयी थी। इन दोनों के नाम दीर्घकाल तक शिलालेखों में मिलते हैं। अत: जब मुख्य सेनापति ईश्वर नायक के पुत्र नरसा नायक राजा बन गये तो इसे सहज रूप में स्वीकार कर लिया गया। सन् 1491 से 1503 तक इनका राज्यकाल माना जाता है।

वीर नृसिंह राय इनके बाद राजा हुए। इनका राज्यकाल 1509 तक चला। बीदर के सुल्तान के जिहाद का दमन करने का श्रेय इन्हें ही है। राज्य में जिस ओर भी विद्रोह की सुगबुगाहट हुई, उसे शांत नृसिंह राय ने किया और कावेरी से तृंगभद्रा नदी के बीच के दोआब में प्रशासन तंत्र को सुदृढ़ बनाया। सैन्य प्रशिक्षण को क्रमबद्ध किया और सेना में सभी के प्रवेश के लिए द्वार खोल दिया। पुर्तगाल से दौत्य सम्पर्क स्थापित करके व्यापारिक समझौते को नियमित किया और विवाह पर से कर वसूली को समाप्त किया। एक आदर्श राज्य में जो कुछ संभव था उसकी संकल्पना और प्रारूप वीर नृसिंह राय ने की थी। उन्होंने ही अपने भाइयों, भुजबल नृसिंह राय, अच्युत राय और रंग राय से वरीयता देकर श्री कृष्णदेव राय का टीका किया। परम्परानुसार भुजबल ज्येष्ठ थे, पर उन्होंने सेनापति रहकर राज्य की रक्षा करने वाले कृष्णदेव राय का समर्थन किया। दलनायकों की सभा ने भी कृष्णदेव राय का समर्थन किया और राय वाचकमु के अनुसार-26 जुलाई, 1509 को कृष्णदेव राय का टीका हुआ। वीर नृसिंह राय की मृत्यु के पश्चात उनका जन्माष्टमी को अभिषेक हुआ और 28 जनवरी, 1510 को सिंहासन पर आरुढ़ हुए।

राजा कृष्णदेव राय का राज्याभिषेक

आयर्दान महोत्सवस्व विनत क्षोनी भृता मूर्तिमान विश्वासो नयनोत्सवो मृगदृशां-कीत्र्ते:प्रकाश:पर:। आनंद:कलिताकृति:वीरोश्रियो जीवितं धर्मस्यैष निकेतनं विजयते श्रीकृष्ण देव राय:नृप:।

विजया कुमारी और सेपुरी भास्कर के अनुसार कृष्णदेव राय का जन्म नायडू वंश के कापू कुल में हुआ था, किन्तु पितामह ईश्वर नायडू और पिता नरसा नायडू के सलुआ राजाओं के मुख्य सेनापति होने के कारण उनकी शिक्षा-दीक्षा भी राजकुमारों के साथ हुई थी और बाल्यकाल से ही वे शस्त्र और शास्त्र में निपुण हो गये थे। किशोरवय से ही पिता के साथ युद्ध संचालन और राजनीति की पेचीदयों को सुलझाने में प्रवीणता प्राप्त की थी। वे दक्षिण के बहमनी, कुतुबशाही, आदिलशाही, बीदर आदि सुल्तानों की रीति-नीति से पूर्ण परिचित थे और अपने भाइयों और राजकुमार के ढुलमुल चरित्र को देखते हुए उन्होंने उन्हें चन्द्रगिरि के किले में नजरबंद रखा और शासन के प्रारंभिक वर्षों में विजयनगर छोड़कर कहीं नहीं गये।

कृष्णदेव राय का राज्याभिषेक

कृष्णदेव राय का राज्याभिषेक 20 वर्ष की आयु में हुआ था। वे माता-पिता के परम भक्त थे। उनके नाम पर उन्होंने नगर भी बसाए गए। उनकी दो पत्नियां थीं, पर वे धर्मकार्य में सहयोगिनी थीं और राज्यकार्य में उनका हस्तक्षेप बिल्कुल नहीं था। आगे चलकर राजनीतिक कारणों से उन्होंने कलिंग के राजा प्रताप रुद्र की कन्या जगन्मोहिनी से विवाह किया था। इसके बावजूद कृष्णदेव राय का जीवन विलासी नहीं था। वे ब्राहृमुहुत्र्त में उठ जाते थे। नित्यकर्म के पश्चात व्यायाम करते थे जिसमें भारोत्तोलन, फुत्र्ती के व्यायाम तथा घुड़सवारी सम्मिलित थे। वे इष्टदेव की अर्चना के लिए देवालय जाते थे। लौटकर मंत्रिपरिषद की सभा में भाग लेकर खुले दरबार में पधारते थे। वे बिजली की तरह चपल थे और आलस्य उन्हें छू नहीं गया था।

कृष्णदेव राय राजा होते ही उन्होंने अपनी उत्तर और पूर्व सीमा को शत्रुओं से घिरा पाया। सर्वप्रथम उन्होंने तिम्मा जैसे अनुभवी मंत्रियों के सहयोग से प्रत्यक्ष शासित राज्य की सुव्यवस्था की और विभिन्न मंत्रालयों के मत्रियों की नियुक्ति करके शासन संचालन के लिए परिषदों की नियुक्ति की, राज्य को छ: प्रांतों में विभाजित किया और 200 सूबेदारों की नियुक्ति की। उनकी सेना और आंतरिक सुरक्षा के विभाग अलग-अलग नहीं थे और सूबेदारों की गतिविधि पर दृष्टि रखने के लिए गुप्तचर सेवा बहुत प्रभावी थी।

सेना की व्यवस्था पर उनकी विशेष नजर रहती थी। हाथियों और घुड़सवारों की संख्या मिलाकर उनकी कुल सैन्य शक्ति सोलह लाख थी जो आज के भारत की कुल सैन्य शक्ति से अधिक नहीं तो समकक्ष तो अवश्य रही होगी। वे अश्वशक्ति (घुड़सवारों) पर विशेष ध्यान देते थे और इसीलिए गोवा के पुर्तगाली शासकों से संबंध बनाए ताकि घोड़ों से लदे जहाज सुविधापूर्वक आ सकें। 

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