Sunday 8 January 2017

सोमनाथ मंदिर स्थापना के समय नेहरू और राजेंद्र प्रसाद में हुयी थी जोरदार टक्कर

11 मई, 1951 को स्वाधीन भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने पुनर्निर्मित सोमनाथ मन्दिर में शास्त्रोक्त विधि से जलाभिषेक द्वारा शिवलिंग की प्राणप्रतिष्ठा की। द्वादश ज्योतिर्लिंगों के लिए शास्त्रों की व्यवस्था का पालन करते हुए इस अवसर पर भारत के प्रत्येक भाग से मिट्टी, सभी पवित्र नदियों का जल और कुशाघास लाया गया था।
श्री मुंशी के अनुसार, "सम्पूर्ण पृथ्वी की एकता एवं मानव जाति के भ्रातृत्व के प्रतीक स्वरूप वि·श्व के सभी भागों से नदियों का जल, मिट्टी और कुशा घास को मंगाने का प्रयास किया गया था।

महमूद गजनवी से लेकर औरंगजेब तक अनेक बार ध्वंसित एवं अनेक बार सर उठाकर खड़े होने वाले इस पवित्र सोमनाथ ज्योतिर्लिंग की पुन: प्राणप्रतिष्ठा के इस ऐतिहासिक प्रसंग का दर्शन करने के लिए गुजरात एवं पूरे भारत से विशाल जनसमुदाय प्रभास तीर्थ में उमड़ पड़ा था। "जय सोमनाथ' के नारों से आकाश गूंज रहा था। पूरे देश भर में उत्साह की लहर दौड़ गयी थी।

इस अवसर पर डा. राजेन्द्र प्रसाद ने जो लिखित भाषण दिया वह स्वाधीन भारत की प्रेरणा, जीवन-दर्शन और भावी स्वप्न को प्रस्तुत करने वाला अद्भुत दस्तावेज है। उस समय देश के सभी समाचार पत्रों ने उसे पूरा छापा, पर आश्चर्य की बात है कि सरकारी पत्रिकाओं में उसे स्थान नहीं दिया गया। भारत के नवोन्मेष की घोषणा करने वाले इस विशाल समारोह की भारत सरकार की आकाशवाणी ने पूर्ण उपेक्षा की। राष्ट्रपति के भाषण और भारत सरकार की स्वीकृति से निर्माण हुए सोमनाथ मन्दिर की प्राणप्रतिष्ठा के महत्वपूर्ण कार्यक्रम की सरकारी तंत्र द्वारा यह उपेक्षा क्यों? सरकारी तंत्र अचानक सोमनाथ मन्दिर के पुनर्निर्माण की अपनी ही योजना के प्रति उत्साह क्यों खो बैठा?

30 जनवरी, 1948 को गांधीजी का शरीरान्त और 15 दिसम्बर, 1950 को सरदार पटेल का देहावसान स्वाधीन भारत की यात्रा में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हैं। इनसे भारत की यात्रा की दिशा ही बदल गयी। स्वाधीन भारत के निर्माण में सरदार पटेल के महती योगदान का स्मरण करते हुए राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने अपने भाषण के अन्त में कहा, "नवनिर्माण का यह यज्ञ स्वर्गीय वल्लभभाई पटेल ने शुरू किया था। भारत की विच्छिन्नता को पुन: एकजुट करने में उनका निर्णायक हाथ था।

सोमनाथ मन्दिर के पुनर्निर्माण की कहानी को स्पष्टत: दो खण्डों में विभाजित किया जा सकता है। एक, 13 नवम्बर, 1947 में सरदार पटेल की सोमनाथ यात्रा से लेकर 15 दिसम्बर, 1950 को उनकी मृत्यु तक। और दूसरा उनकी मृत्यु से 13 मई, 1965 तक जब 21 तोपों की सलामी के साथ श्री सोमनाथ मन्दिर के 155 फुट ऊंचे शिखर पर ध्वजारोहण के साथ कलश प्रतिष्ठा और प्रासादाभिषेक संस्कार सम्पन्न करके भवन निर्माण कार्य पूरा हो गया। सरदार पटेल की मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री पद पर आसीन जवाहरलाल नेहरू ने सोमनाथ मन्दिर के प्रति जो आक्रामक एवं विरोधी रुख अपनाया, उससे स्पष्ट हो गया कि सरदार पटेल की इच्छा के विरुद्ध नेहरू अपनी अध्यक्षता में आयोजित मंत्रिमण्डलीय बैठकों में सोमनाथ मन्दिर की निर्माण योजना के विरोध में अपना मुंह नहीं खोल पाए।

13 नवम्बर, 1947 से फरवरी, 1950 तक निर्माण, खनिज और ऊर्जा मंत्री रहे नरहरि विट्ठल गाडगिल (काकासाहेब गाडगिल) ने मंत्रिमण्डल के सामने मन्दिर निर्माण के सम्बंध में जो भी योजनाएं रखीं उन पर मंत्रिमण्डलीय स्वीकृति की मुहर लगवाते रहे। फरवरी, 1950 में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, जो वस्तुत: सोमनाथ मन्दिर की पुनर्निर्माण योजना के प्रेरक मस्तिष्क थे, संभवत: सरदार की इच्छा से नेहरू मंत्रिमण्डल में सम्मिलित कर लिए गए। खाद्य व कृषि मंत्री का दायित्व संभालते हुए भी वे मन्दिर निर्माण की योजना को पूरे मनोयोग से आगे बढ़ाने लगे। पं. नेहरू की विचारधारा को ये लोग भलीभांति समझते थे।

सरदार की मृत्यु के कुछ मास पहले ही कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए नेहरू के प्रत्याशी को हराकर वे अपनी विचारधारा का प्रभाव प्रकट कर चुके थे। सरदार जैसे प्रभावशाली व्यक्तित्व के चले जाने के बाद नेहरू ने गांधी और पटेल की राष्ट्र-दृष्टि एवं विचारधारा के विरुद्ध प्रधानमंत्री पद से प्राप्त अपनी पूरी ताकत झोंक दी। और इस वैचारिक शक्ति-परीक्षण की रणस्थली बन गया सोमनाथ मन्दिर का पुनर्निर्माण।

मुंशी जी नेहरू जी की विचारधारा और राजनीतिक श्ौली को अच्छी तरह समझते थे। अत: वे नेहरू की ओर से आने वाले विरोध के प्रति पूरी तरह सावधान थे। सरदार पटेल जीवित होते तो मन्दिर निर्माण का प्रथम चरण पूर्ण होने पर गर्भगृह में शिवलिंग की प्राणप्रतिष्ठा वे स्वयं करते, किन्तु अब वे नहीं थे। अत: मुंशी जी ने राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद से प्रार्थना की कि वे इस कार्य को सम्पन्न करें। उन्होंने राष्ट्रपति से आ·श्वासन मांगा कि कितना भी विरोध होने पर भी वे प्राणप्रतिष्ठा करने के अपने वचन का निर्वाह करेंगे। डा. राजेन्द्र प्रसाद ने आ·श्वासन दिया कि यह शुभ कार्य उनके मनोनुकूल है। वे इसमें अवश्य सम्मिलित होंगे। इस हेतु यदि उन्हें राष्ट्रपति पद छोड़ना पड़ा तो भी वे पीछे नहीं हटेंगे। वे अग्निपरीक्षा में कूद पड़े।

राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद से यह आ·श्वासन मिलने के बाद सोमनाथ मन्दिर न्यासी के अध्यक्ष के नाते सौराष्ट्र संघ के राज्यप्रमुख और जामसाहब नवानगर श्री दिग्विजय सिंह ने राष्ट्रपति के नाम औपचारिक निमंत्रण पत्र भेज दिया। डा. राजेन्द्र प्रसाद ने संवैधानिक औपचारिकता को पूरा करने के लिए 2 मार्च, 1951 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को पत्र द्वारा सूचित किया कि मैं जामसाहब नवानगर के निमंत्रण को स्वीकार करने में आपत्ति का कोई कारण नहीं देखता, क्योंकि मैं मन्दिरों एवं अन्य धर्मों के पवित्र स्थलों में जाता रहा हूं। नेहरू ने उसी दिन राष्ट्रपति को पत्र भेजकर अपना विरोध सूचित किया। उन्होंने लिखा कि "सोमनाथ मन्दिर के धूमधाम भरे उद्घाटन समारोह से आपका जुड़ना मुझे कतई पसन्द नहीं है...मेरे विचार से सोमनाथ में बड़े पैमाने पर भवन निर्माण के लिए यह समय उपयुक्त नहीं है। यह काम धीरे-धीरे हो सकता था, बाद में इसमें तेजी लायी जा सकती थी, लेकिन यह किया जा चुका है। मैं सोचता हूं कि आप इस समारोह की अध्यक्षता न करते तो अच्छा होता।'

डा. राजेन्द्र प्रसाद ने 10 मार्च को नेहरू के पत्र का उत्तर देते हुए स्पष्ट कर दिया कि उस समारोह में सम्मिलित होने के लिए वे वचनबद्ध हैं, वैसे भी यह उनकी भावनाओं के अनुकूल है। उन्होंने लिखा कि "सोमनाथ मन्दिर का बहुत अधिक ऐतिहासिक महत्व है। साथ ही यह निमंत्रण पत्र सौराष्ट्र संघ के राज्यप्रमुख, जो न्यासी मण्डल के अध्यक्ष भी हैं, की ओर से आया है। अत: उसे अस्वीकार करना उचित नहीं होगा।' बौखलाए हुए नेहरू ने पहले तो चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का हस्तक्षेप आमंत्रित करने की कोशिश की। अगले दिन 11 मार्च को राजगोपालाचारी के नाम लम्बे पत्र में उन्होंने इस विषय पर डा. राजेन्द्र प्रसाद के साथ अपने पिछले पत्राचार का वर्णन करते हुए कहा कि, "राष्ट्रपति इस समारोह में जाने के लिए बहुत उत्सुक हैं, अत: मैं नहीं सोच पा रहा हूं कि क्या मेरे लिए यह आग्रह करना उचित होगा कि वे वहां न जाएं? मैं आपकी सलाह चाहूंगा। अन्यथा मैं उन्हें लिख दूंगा कि वे अपने विवेकाधिकार का उपयोग करने के लिए स्वतंत्र हैं। यद्यपि मैं अभी भी सोचता हूं कि उनका वहां न जाना ही बेहतर होगा।' राजगोपालाचारी ने नेहरू जी के समर्थन में हस्तक्षेप नहीं किया। इसलिए नेहरू ने 13 मार्च, 1951 को राजेन्द्र बाबू को पत्र लिखा कि "मैं आपको अपनी प्रतिक्रिया से पहले ही अवगत करा चुका हूं, किन्तु यदि आप उस निमंत्रण पत्र को अस्वीकार करना उचित नहीं समझते तो मैं अपनी बात पर अधिक जोर नहीं देना चाहूंगा।' इस प्रकार डा. राजेन्द्र प्रसाद की दृढ़ इच्छाशक्ति के सामने नेहरू को हथियार डालने पड़े और राजेन्द्र बाबू ने जामसाहब नवानगर को अपनी औपचारिक स्वीकृति सूचित कर दी।

किन्तु नेहरू जी सोमनाथ मन्दिर के पुनर्निर्माण में बाधा डालने के रास्ते खोजते रहे। संयोग से चीन में भारत के राजदूत सरदार के.एम. पणिक्कर ने उन्हें मनचाहा अवसर प्रदान कर दिया।

हम पहले ही बता चुके हैं कि शास्त्रीय विधान का पालन करते हुए जामसाहब नवानगर ने विदेश मंत्रालय से परामर्श करके सभी भारतीय दूतावासों को पत्र लिखकर प्रार्थना की कि वै·श्विक एकता के प्रतीक स्वरूप वे इस अवसर के लिए जिस देश में हैं, वहां की प्रमुख नदियों का जल, उस देश की मिट्टी और वहां की कुशाघास भेजने की कृपा करें। अधिकांश राजदूतों ने इस प्रार्थना को पूरा किया। उनके समाचार भी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए।

किन्तु पणिक्कर ने विदेश मंत्रालय को पत्र लिखकर पूछा कि इस खर्चे को हम किस मद में डालेंगे। 21 मार्च को उन्होंने नेहरू जी को भी पत्र लिखा कि इससे चीन की सरकार हमारे बारे में क्या सोचेगी। हमारी छवि क्या बनेगी? पाठकों को शायद स्मरण हो कि यही पणिक्कर साहब हैं, जिन्होंने तिब्बत के साथ चीन के सम्बंधों की व्याख्या करने वाले दस्तावेज में सुजरेन्टी (देख-रेख) शब्द की जगह "सोवरेन्टी' (प्रभुसत्ता) शब्द लिखकर तिब्बत पर चीन के आक्रमण का रास्ता साफ कर दिया था और तिब्बत की वर्तमान त्रासदी को जन्म दिया। पणिक्कर चीन के कम्युनिस्ट शासकों को प्रसन्न करना देश की अस्मिता की रक्षा से अधिक महत्व देते थे।

पणिक्कर का पत्र पाते ही नेहरू जी ने सोमनाथ मन्दिर पर अपना हमला तेज कर दिया। 17 अप्रैल, 1951 को उन्होंने पणिक्कर को उत्तर दिया कि "सोमनाथ मन्दिर धंधे के बारे में तुम्हारे विचारों से मैं पूर्णतया सहमत हूं। यह सब कुछ ऊटपटांग हो रहा है। मैंने राष्ट्रपति को इस कार्य के मुख्य सूत्रधार व संरक्षक मुंशी (क.मा.) को अपने विचार साफ-साफ बता दिए हैं। मैंने तो राष्ट्रपति को वहां न जाने के लिए भी कहा, किन्तु देर हो जाने के कारण उन्हें रोक पाना मेरे लिए संभव नहीं था। इसलिए उनकी वहां जाने और वहां जो कुछ भी वे करेंगे, उसके प्रभाव को अधिक से अधिक कम करने की कोशिश कर रहा हूं।'

क्या थीं ये कोशिशें? उसी दिन नेहरू जी ने राजगोपालाचारी को पत्र लिखकर अपनी हताशा व्यक्त की। उन्होंने लिखा, "मैं पणिक्कर का पत्र आपको भेज रहा हूं साथ ही बर्मा की कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में उनका नोट भी। उन्होंने सोमनाथ मन्दिर के झमेले के बारे में जो लिखा है उसकी ओर मैं आपका ध्यान विशेष रूप से आकर्षित करना चाहता हूं। मैं इस बारे में बहुत परेशान हूं, किन्तु सोच नहीं पा रहा कि क्या करूं? यह अचम्भे की बात है कि लोग दूतावासों को नदियों का जल भेजने के लिए लिखें।'

सोमनाथ मन्दिर के विरुद्ध नेहरू जी ने अपनी रणनीति में चार सूत्र अपनाए-

प्रथम-बार-बार यह दोहराना कि सोमनाथ मन्दिर का पुनर्निर्माण भारत के पंथनिरपेक्ष चरित्र के अनुकूल नहीं है। यह हिन्दू पुनरुत्थानवादी कार्य है। इससे विदेशों में भारत की छवि खराब होगी।

द्वितीय-सोमनाथ मन्दिर की पुनर्निर्माण योजना का भारत सरकार से कोई सम्बंध नहीं है। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में यह विषय कभी भी नहीं आया और न केन्द्रीय मत्रिमण्डल ने इसके लिए स्वीकृति दी। सरदार पटेल, न.वि. गाडगिल और क.मा. मुंशी मंत्री के नाते अपनी व्यक्तिगत हैसियत से इस योजना में भाग ले रहे थे।

तृतीय-राष्ट्रपति को उसके प्राणप्रतिष्ठा समारोह में नहीं जाना चाहिए और सौराष्ट्र राज्य संघ के राजप्रमुख श्री दिग्विजय सिंह को सोमनाथ मन्दिर ट्रस्ट की अध्यक्षा नहीं रहना चाहिए।

चतुर्थ-सोमनाथ मन्दिर के उद्घाटन समारोह का सरकारी तंत्र पर प्रचार नहीं होना चाहिए।

17 अप्रैल को ही नेहरू जी ने खाद्य एवं कृषि मंत्र क.मा. मुंशी को पणिक्कर के पत्र का हवाला देते हुए पत्र लिखा कि "पणिक्कर से यह प्रार्थना किन्हीं व्यक्तियों ने निजी तौर पर की होती तो कोई बात नहीं थी किन्तु इस प्रार्थना को भेजने वाले लोग सरकार का अंग हैं, और राष्ट्रपति के नाम का भी उल्लेख किया जा रहा है इससे हमारी स्थिति विदेशों में खराब होगी। मुझे लगता है कि हमारे लोग यह नहीं समझते हैं कि विदेशी लोग हमारे कुछ विचारों और कार्यों को किस रूप में देखते हैं। मैं इस कार्य से बहुत अधिक परेशान हूं। मुझे बताइए कि और किन-किन दूतावासों को आपने पत्र भिजवाए हैं मुझे उनको भी पत्र लिखने होंगे।'

इन्हीं दिनों किसी समाचार पत्र ने छाप दिया कि सौराष्ट्र सरकार सोमनाथ मन्दिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह पर पांच लाख रुपए खर्च करने जा रही है। यद्यपि सौराष्ट्र सरकार ने तुरन्त ही इसका खण्डन कर दिया, तथापि नेहरू जी ने इस अपवाद को ही अपने आक्रमण का हथियार बना लिया। 21 अप्रैल, 1951 को उन्होंने सौराष्ट्र राज्य संघ के मुख्यमंत्री श्री यू.एन. ठेबर को पत्र लिखकर इसका स्पष्टीकरण मांगा। उन्होंने यह भी लिखा कि, "सोमनाथ मन्दिर का चाहे जितना महत्व हो, सरकार का इससे कुछ लेना-देना नहीं है। उसके लिए धनसंग्रह की जिम्मेदारी निजी व्यक्तियों की है। सरकारी धन को इस तरह खर्च नहीं किया जाना चाहिए।' अगले दिन 22 अप्रैल को उन्होंने राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद को फिर एक पत्र लिखा कि "मैं सोमनाथ मामले से बहुत अधिक परेशान हूं। जैसा कि मुझे भय था, हमें यह राजनीतिक महत्व का बनता जा रहा है। विदेशों में भी इसकी चर्चा हो रही है। इसके प्रति हमारी नीति की आलोचना में कहा जा रहा है कि हमारे जैसे सेकुलर सरकार एक ऐसे समारोह से अपने को कैसे मोड़ सकती है जो अन्य बातों के अलावा पुनरुत्थानवादी चरित्र का है। मुझे पार्लियामेंट में प्रश्न पूछ जा रहे हैं और मैं उनके उत्तर में कह रहा हूं कि सरकार का इससे कोई सम्बंध नहीं है और जो लोग उससे किसी भी रूप में जुड़े हैं वे अपनी निजी हैसियत से ऐसा कर रहे हैं।' जामसाहब जो सोमनाथ ट्रस्ट के अध्यक्ष, राजप्रमुख भी हैं और उसकी दोनों भूमिकाओं को अलग-अलग देख पाना कठिन ही है। हमारे कई दूतावासों की स्थिति उनके पत्र के कारण विषय हो गयी है और उन्होंने कड़ा विरोध प्रकट किया है। कुछ विदेशी दूतावास भी पूछ रहे हैं कि यह सब क्या हो रहा है।' इस पत्र में नेहरू जी सौराष्ट्र सरकार 5 लाख रुपए होने के समाचार को भी उठाया। कहा कि देश भुखमरी के कगार पर है, हर तरफ से खर्च कम करने की कोशिश की जा रही है। तब भी एक राज्य सरकार केवल एक मन्दिर के प्राणप्रतिष्ठा समारोह पर 5 लाख रुपए खर्च करने की सोच सकती है।'

अपनी हताशा उंडेलते हुए उन्होंने लिखा कि "मैं नहीं समझ पा रहा कि इस विषय में मैं क्या करूं, किन्तु मुझे भारत सरकार को तो इससे बिल्कुल अलग करना ही होगा। पार्लियामेन्ट में और संभवत: प्रेस सम्मेलनों में उठाए गए प्रश्नों के उत्तर में मैं साफ-साफ कह दूंगा कि सरकार का इससे कोई सम्बंध नहीं है।'

उसी दिन उन्होंने क.मा. मुंशी और जामसाहब नवागर को पत्र लिखे। मुंशी को लिखा कि "विदेशों में यह धारणा पैदा हुई है कि सोमनाथ का प्राणप्रतिष्ठा समारोह का आयोजन सरकार कर रही है। मैं इससे बहुत परेशान हूं। मुझे से संसद में सवाल पूछे जा रहे हैं और मैं यह स्पष्ट करने जा रहा हूं कि सरकार का इससे कोई सम्बंध नहीं है। किन्तु सौराष्ट्र सरकार ने इस समारोह पर 5 लाख रुपए खर्च करने का निर्णय ले लिया है। मैं समझता हूं कि किसी भी सरकार के लिए किसी भी समय यह खर्च करना अनुचित है। मैं राष्ट्रपति और जामसाहब को भी इस बारे में पत्र लिख रहा हूं। दुर्भाग्य से जामसाहब ने सोमनाथ मन्दिर न्यास के अध्यक्ष हैं बल्कि सौराष्ट्र के राजप्रमुख भी हैं।' जामसाहब को लिखे गए लम्बे पत्र में उन्होंने दूतावासों को लिखे गए एक पत्र एवं 5 लाख रुपए के खर्च के बिन्दुओं को उठाते हुए कहा कि "मेरी वास्तविक कठिनाई यह है कि "राष्ट्रपति स्वयं इस समारोह में भाग लेने जा रहे हैं। मैं उनका ध्यान खींचा है कि इससे गलतफहमी पैदा होगी। किन्तु मैं इस मामले में उनके व्यक्तिगत रुझान में आड़े नहीं जाना चाहता।'

नेहरू ने लिखा कि सोमनाथ ट्रस्ट के अध्यक्ष होने के साथ-साथ सौराष्ट्र के राजप्रमुख भी हैं। स्वाभाविक ही, इससे विदेशी मस्तिष्क में भ्रम पैदा हो रहा है और वे ऐसे निष्कर्ष निकाल रहे हैं जिन्हें तथ्यों के प्रकाश में गलत नहीं कहा जा सकता।' उन्होंने चिन्ता जतायी कि पाकिस्तान इस मामले का भारी लाभ उठा रहा है। बेचारे अफगानिस्तान को भी एक झूठी कहानी के आधार पर इस विवाद में घसीट लिया गया है।' नेहरू जी ने फिर दोहराया कि जब भी मौका मिलेगा, मैं साफ-साफ कह दूंगा कि सरकार का इस समारोह से कोई रिश्ता नहीं है।

22 या 23 अप्रैल को नेहरू जी ने मंत्रिमण्डल में यह विषय उठाया और क.मा. मुंशी को दोषी ठहराने की कोशिश की। इसके उत्तर में मुंशी जी ने 24 अप्रैल को एक लम्बा पत्र नेहरू को लिखा जिसकी चर्चा हम अगले लेख में करेंगे। 22 अप्रैल को जामसाहब ने नेहरू जी को सोमनाथ मन्दिर के प्राणप्रतिष्ठा समारोह में पधारने का अनुरोध भेजा। उसके उत्तर में 24 अप्रैल को जामसाहब के नाम लिखे पत्र में नेहरू जी को यह लिखने का साहस नहीं हुआ कि मैं सैद्धान्तिक आधार पर आपके निमंत्रण को अस्वीकार कर रहा हूं बल्कि बहाना बनाया कि "इस कठिन समय में किसी भी कार्यक्रम के लिए दिल्ली से बाहर जाने की स्थिति में नहीं हूं।' किन्तु आगे चलकर उन्होंने अपने मन की बौखलाहट उड़ेल ही दी, "मैं इस पुनरुत्थान से और इस तथ्य से कि हमारे राष्ट्रपति, कुछ मंत्रीगण आप राजप्रमुख इससे जुड़े हुए हैं। मेरे विचार से यह हमारे राज्य की प्रकृति के अनुरूप नहीं है। इसके देश और विदेश में खराब परिणाम होंगे।'

24 अप्रैल को ही अपनी वि·श्वस्त मृदुला साराभाई के नाम एक पत्र में नेहरू जी ने अपनी हताशा को उड़ेला। उन्होंने लिखा कि सोमनाथ के मामले ने मुझे बहुत अधिक परेशान किया है। कुछ समय पहले मैंने राजेन्द्र बाबू से इस विषय पर बात की और पत्र भी लिखे। और अपने दृष्टिकोण को साफ शब्दांे में उनके सामने रखा। अब मैं उनके रास्ते में नहीं आना चाहता।' जहां तक सौराष्ट्र सरकार द्वारा 5 लाख रुपए खर्च करने का सवाल है वह शायद सही नहीं है और उसका राजेन्द्र बाबू से कोई ताल्लुक नहीं है।' नेहरू जी ने मृदुला साराभाई को राजेन्द्र बाबू से भेंट करके दबाव डालने की सलाह भी दी।

किन्तु राजेन्द्र बाबू पर इन सब दबावों का कोई असर नहीं हुआ और वे अपने निश्चय पर अडिग रहे। अन्तत: नेहरू जी सूचनामंत्री रंगनाथ दिवाकर को 28 अप्रैल को लिखित आदेश दे दिया कि रेडियो प्रसारण में सोमनाथ में होने वाले कार्यक्रम का वर्णन बहुत कम करके किया जाए और ऐसा आभास तनिक भी न पैदा होने दिया जाए कि वह कोई सरकारी कार्यक्रम था।' राजेन्द्र बाबू यह एक प्रकार से राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू की अग्नि परीक्षा ही थी जिसमें वे सफल होरक बाहर निकले।

No comments:

Post a Comment