Monday 23 November 2015

कौन थे प्रकांड हिन्दू विद्वान् अष्टावक्र

अष्टावक्र की माता का नाम सुजाता था। उनके पिता कहोड़ वेदपाठी और प्रकांड पंडित थे तथा उद्दालक ऋषि के शिष्य और दामाद थे। राज्य में उनसे कोई शास्त्रार्थ में जीत नहीं सकता था। अष्टावक्र जब गर्भ में थे तब रोज उनके पिता से वेद सुनते थे। एक दिन उनसे रहा नहीं गया और गर्भ से ही कह बैठे- 'रुको यह सब बकवास, शास्त्रों में ज्ञान कहाँ? ज्ञान तो स्वयं के भीतर है। सत्य शास्त्रों में नहीं स्वयं में है। शास्त्र तो शब्दों का संग्रह मात्र है।'
यह सुनते ही उनके पिता क्रोधित हो गए। पंडित का अहंकार जाग उठा, जो अभी गर्भ में ही है उसने उनके ज्ञान पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। पिता तिलमिला गए। उन्हीं का वह पुत्र उन्हें उपदेश दे रहा था जो अभी पैदा भी नहीं हुआ। क्रोध में अभिशाप दे दिया- 'जा...जब पैदा होगा तो आठ अंगों से टेढ़ा होगा।' इसीलिए उनका नाम अष्टावक्र पड़ा।

पिता ने क्रोध में शरीर को विक्षप्त कर दिया। उन्हें जरा भी दया नहीं आई। ऐसे पिता के होने का क्या मूल्य, जो अपने पुत्र को शाप दे। अष्टावक्र का कोई बहुत बड़ा अपराध नहीं था। उन्होंने तो अपना विचार ही प्रकट किया था, लेकिन इससे यह सिद्ध होता है कि लोग अपने-अपने शास्त्रों के प्रति कितने कट्टर होते हैं।
पिता के इस शाप के बावजूद अष्टावक्र पिताभक्त थे। जब वे बारह वर्ष के थे तब राज्य के राजा जनक ने विशाल शास्त्रार्थ सम्मेलन का आयोजन किया। सारे देश के प्रकांड पंडितों को निमंत्रण दिया गया, चूँकि अष्टावक्र के पिता भी प्रकांड पंडित और शास्त्रज्ञ थे तो उन्हें भी विशेष आमंत्रित किया गया। जनक ने आयोजन स्थल के समक्ष 1000 गायें बाँध ‍दीं। गायों के सींगों पर सोना मढ़ दिया और गले में हीरे-जवाहरात लटका दिए और कह दिया कि जो भी विवाद में विजेता होगा वह ये गायें हाँककर ले जाए।

संध्या होते-होते खबर आई कि अष्टावक्र के पिता हार रहे हैं। सबसे तो जीत चुके थे ‍लेकिन वंदनि (बंदी) नामक एक पंडित से हारने की स्थिति में पहुँच गए थे। पिता के हारने की स्थिति तय हो चुकी थी कि अब हारे या तब हारे। यह खबर सुनकर अष्टावक्र खेल-क्रीड़ा छोड़कर राजमहल पहुँच गए। अष्टावक्र भरी सभा में जाकर खड़े हो गए। उनका आठ जगहों से टेढ़ा-मेढ़ा शरीर और अजीब चाल देखकर सारी सभा हँसने लगी। अष्टावक्र यह नजारा देखकर सभाजनों से भी ज्यादा जोर से खिलखिलाकर हँसे।

जनक ने पूछा, 'सब हँसते हैं, वह तो मैं समझ सकता हूँ, लेकिन बेटे, तेरे हँसने का कारण बता?
अष्टावक्र ने कहा, 'मैं इसलिए हँस रहा हूँ कि इन चमारों की सभा में सत्य का निर्णय हो रहा है, आश्चर्य! ये चमार यहाँ क्या कर रहे हैं।'
सारी सभा में सन्नाटा छा गया। सब अवाक् रह गए। राजा जनक खुद भी सन्न रह गए। उन्होंने बड़े संयत भाव से पूछा, 'चमार!!! तेरा मतलब क्या?'
अष्टाव्रक ने कहा, 'सीधी-सी बात है। इनको चमड़ी ही दिखाई पड़ती है, मैं नहीं दिखाई पड़ता। ये चमार हैं। चमड़ी के पारखी हैं। इन्हें मेरे जैसा सीधा-सादा आदमी दिखाई नहीं पड़ता, इनको मेरा आड़ा-तिरछा शरीर ही दिखाई देता है। राजन, मंदिर के टेढ़े होने से आकाश कहीं टेढ़ा होता है? घड़े के फूटे होने से आकाश कहीं फूटता है? आकाश तो निर्विकार है। मेरा शरीर टेढ़ा-मेढ़ा है लेकिन मैं तो नहीं। यह जो भीतर बसा है, इसकी तरफ तो देखो। मेरे शरीर को देखकर जो हँसते हैं, वे चमार नहीं तो क्या हैं?
अब भगवान् राम के श्वसुर पश्चाताप से भर उठे.. एक मिनट में अष्टावक्र ने सबका अभिमान उतार दिया था...

दोस्तों इसके बाद इस मेधावी बालक ने पंडित वंदिनी को शाश्त्रार्थ के लिए ललकारा.. वेदों को आधार बना मुकाबला शुरू हुआ और देखिये पहले के जमाने में कैसे यह होता था .. अगले पोस्ट में..शस्त्रार्थ के अंश..
(22 नवम्बर 2014 का पोस्ट)

No comments:

Post a Comment