Sunday 2 October 2016

आजकल के जज के फैसले

एक बार एक करोड़पति अपराधी आखिरकार अपने गलत कारनामों को लेकर फंस गया, एक लड़की से बलात्कार का केस भी था और रंगदारी, अपहरण जैसे कई केस उस पर आ गए । मामला कोर्ट में चला गया। लड़की ने साफ़ गवाही दे दी थी और बाकी लोगों ने भी।

अदालत में केस पहुंचा, आरोपी के करोड़पति होने की बात सुनकर जज की आँखें चमक उठी। उधर आरोपी ने भी जज तक बात पहुंचा दी थी कि "सुविधा" में कमी नहीं की जायेगी बस मामला मेरे पक्ष में कर दो।

"जज साहब ये ही है वो आदमी जिसने रेप किया"

"अच्छा अच्छा" ....

"सबूत में लड़की खुद गवाही दे चुकी है"

"अच्छा अच्छा"

"घटना स्थल से प्रत्यक्षदर्शी ने भी ऐसा होने का बयान दिया है हुजूर"

"अच्छा अच्छा और कुछ ?

"और कुछ... और इससे ज्यादा क्या हुजूर ? बस.... "

अब जज ने फैसला सुना दिया...

"तमाम गवाहों को सुनने के बाद अदालत इस निर्णय पर पहुंची है कि आरोपी को फंसाया गया है, और आरोपी के विरुद्ध दिए जा रहे सबूत संदेह में है, इसलिए आरोपी को निर्दोष समझ कर ये केस हटाते हुए उसे बरी किया जाता है।"

(असल में आजकल जज को कोर्ट में पेश हो रहे सबूत और दलील से कोई मतलब नहीं होता है, निजी तौर पर अगर उसने फैसला कर लिया है कि किसे दोषी बनाना है और किसे निर्दोष तो सिर्फ एक फैसला सुना देना होता है। उसने क्यों ऐसा समझा, ये पूछने वाला कोई नहीं होता। मुवक्किल की हिम्मत नहीं कि वो हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का खर्च वहन कर सके और कर भी सके तो हाइकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट समझता रहे, ये अपना कमाई करके अलग हो जाता है।)

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