Sunday 23 October 2016

हिन्दू धर्म का ज्ञान

कम से कम ज्ञात रूप से 90,000 वर्षों से हिन्दू सनातन धर्म का अस्तित्व है। 35,000 वर्ष पहले तक की सभ्यता के पूख्‍ता सबूत पाए गए हैं। 14,000 वर्ष पहले हिन्दू युग की शुरुआत हुई थी। अब तक वराह कल्प के स्वायम्भुव मनु, स्वरोचिष मनु, उत्तम मनु, तामस मनु, रैवत मनु, चाक्षुष मनु तथा वैवस्वत मनु के मन्वंतर बीत चुके हैं और अब वैवस्वत तथा सावर्णि मनु की अंतरदशा चल रही है। मथुरा के विद्वान ऐसा अनुमान लगाते हैं कि सावर्णि मनु का आविर्भाव विक्रमी संवत् प्रारंभ होने से 5630 वर्ष पूर्व हुआ था। माना जाता है कि वैवस्वत मनु का आविर्भाव 6673 ईसा पूर्व अर्थात 8689 वर्ष पहले हुआ था।
6,000 ईसा पूर्व में भारत में बहुत ही विद्वान खगोलशास्त्री विद्यमान थे जिन्होंने वेदों के ज्ञान पर आधारित खगोल विज्ञान का विकास किया और बताया कि धरती सूर्य का चक्कर लगाती और चन्द्रमा धरती का चक्कर लगाता है और धरती में गुरुत्वाकर्षण की शक्ति है। आज इस बात को विज्ञान भी मानता है, गैलीलियो या न्यूटन ने कोई नई बात नहीं बताई थी।

रक्तचाप की खोज, प्लास्टिक सर्जरी, विमान का आविष्कार, बिजली का आविष्कार, गणितीय विद्या, शून्य का आविष्कार, भाषा और व्याकरण का आविष्कार आदि अनेक ऐसे आविष्कार हैं जिनके बारे में तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला के विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता था।

लोग अल्बर्ट आइंस्टीन के उस वाक्य को भूल जाते हैं जिसमें उन्होंने कहा था- 'हम भारतीयों के बेहद आभारी हैं जिन्होंने हमें गिनना सिखाया जिसके बिना कोई भी वैज्ञानिक खोज करना मुमकिन नहीं था।'

यदि हम शरीर के तंत्रिका तंत्र की बात करें तो इसका उल्लेख पहले से ही वेद, आयुर्वेद और योग की किताबों में मौजूद है। यह जानकारी उसी रूप में मौजूद है जिस रूप में विज्ञान आज इसे प्रकट करता है। विज्ञान की यह जानकारी वेदों में दी गई शरीर के रचना-तंत्र की जानकारी से इतनी मिलती-जुलती है कि इससे सभी हैरान हैं कि 6,000 वर्ष पूर्व यह कैसे पता चला?

परा और अपरा विद्या :
हिन्दू धर्म में ज्ञान को 2 श्रेणियों में रखा गया है। पहला परा विद्या और दूसरा अपरा विद्या। सभी तरह का वैज्ञानिक ज्ञान परा विद्या के अधीन है और वहीं आध्यात्मिक ज्ञान अर्थात परमात्मा और आत्मा का ज्ञान अपरा विद्या के अंतर्गत आता है। वैज्ञानिक ज्ञान ही आध्यात्मिक ज्ञान की ओर ले जाता है।

हिंदू दर्शन के मुताबिक ब्रह्मांड की रचना करने वाला कोई व्यक्ति या एक कहानी नहीं है। इसके अनुसार जन्म और मृत्यु के चक्र में सभी गुंथे हुए हैं। चाहे आत्मा हो, शरीर, दृश्य या अदृश्य सबका इस चक्र में महत्व है।

हिन्दू धर्म के 5 मुख्य आधार हैं- ईश्वर, जीव, काल, प्रकृति और कर्म। इनमें पहले 5 अनंत हैं जबकि कर्म अस्थायी। काल का अर्थ समय। समय ईश्वर का अव्यक्तिगत और अनंत पक्ष है। इसका न आदि है और न अंत। हिन्दू धर्म के ब्रह्मांड की थ्‍योरी बिग बैंग द्वारा दी गई थ्योरी से 104 गुना ज्यादा है। वर्तमान सृष्टि अनगिनत सृष्टियों में से एक है। इसमें धरती पर 84 लाख प्रकार के करोड़ों जीव मौजूद हैं। ईश्‍वर और जीव में यह अंतर है कि ईश्‍वर अजन्मा और अनंत है जबकि जीव उसका सूक्ष्मतम रूप है। जीव शरीर धारण करता रहता है, लेकिन ईश्‍वर अजन्मा और अप्रकट है। ईश्‍वर को परमात्मा एवं जीव को एक आत्मा कहा जाता है। ईश्वर ने कभी न तो मनुष्य रूप में जन्म लिया और न ही किसी के शरीर पर अवतरित होकर कोई संदेश दिया। ऋषियों को जो ज्ञान मिला वह गहन ध्यान के क्षणों में मिला और उन्होंने जब उसे लोगों को सुनाया तो उसे श्रुति कहा गया। यह ज्ञान स्वयं ईश्वर ने दिया था। श्रुति के ज्ञान को जब लोगों ने सुनकर अपनी पीढ़ियों को विस्तृत रूप में अपने अपने तरीके से बताया तो उसे स्मृति ज्ञान कहा गया। इस तरह दो ग्रंथ बने श्रुति और स्मृति। श्रुति ही धर्मग्रंथ है।

प्रकृति में पदार्थ से अलग आत्मा एक सर्वोत्तम कण या परम अणु है जिसमें चेतना और स्वेच्छा है, जो पदार्थ से पूर्णत: विपरीत है लेकिन जो पदार्थ को संचालित करती रहती है। यही चेतना ब्रह्मांड की प्रेरक है और हर जीवित वस्तु में आत्मा रूप में विद्यमान है। हिन्दू धर्म के अनुसार पेड़-पौधों, कीट-पतंगों, गतिशील तत्वों में आत्मा अर्थात चेतना विद्यमान है। इस आत्मा का मूल स्वरूप परमात्मा के समान ही है, जैसे सत, चित्त और आनंद।

सर्वेश्वरवाद या अवतारवाद वेद नहीं पुराणों के अंग है। यह मूल सनातन धर्म की विचारधारा से अलग माने जाते हैं। दरअसल, ये सभी पहलू ईश्वर या परम तत्व के मूलभूत अंग माने जा सकते हैं। वेदों के अनुसार तो ईश्वर एक ही है।

परमात्मा या ईश्‍वर के मुख्‍यत: 3 पहलू हैं। पहला अव्यक्तिगत अर्थात ब्रह्म ज्योति। यह कारण और प्रभाव से ऊपर है। दूसरा पक्ष है परमात्मा, जो सभी जीवों की प्रेरणा है। परमात्मा या परमेश्

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