Friday 7 October 2016

दस ऐसे भारतीय परंपरा जो आपको आज अपनाना चाहिए

समय के साथ सब कुछ बदलता रहता है लेकिन उनमें से कुछ बदलाव लाभदायक होते हैं और कुछ नुकसानदायक। जैसे परंपरागत खेती को छोड़कर आधुनिक खेती को अपनाया जा रहा है। जैसे परंपरागत जलस्रोतों को छोड़कर आरो का जल पीया जा रहा है। आइये देखिये ऐसी 10 भारतीय परंपरा जो आपको आज भी अपना लेना चाहिए..
1. नीम की दातून करना : 

 अब यह कुछ गांवों में ही प्रचलित है कि नीम की छाल या डंडी तोड़कर उससे दांत साफ किए जाएं। कभी-कभी 4 बूंद सरसों के तेल में नमक मिलाकर भी दांत साफ किए जाते थे।
इन दोनों ही नित्य कर्म को करने का फायदा यह था कि इससे जहां दांत और आंत साफ और मजबूत रहते थे वहीं इसके अन्य ज्योतिषीय लाभ भी थे। वैज्ञानिक कहते हैं कि दांतों और मसूड़ों के मजबूत बने रहने से आपकी आंखें, कान और मस्तिष्क भी सही रहते हैं।

2. सुरमा लगाना : 
सुरमा दो तरह का होता है- एक सफेद और दूसरा काला। काले सुरमे का काजल बनता है। सुरमा लगाने का प्रचलन मध्य एशिया में भी रहा है और भारत में भी। दोनों ही तरह के सुरमा मूल रूप से पत्थर के रूप में पाए जाते हैं। इसका रत्न भी बनता है और इसी से काजल भी बनता है।
कभी-कभी सुरमा लगाने से जहां आंखों के सभी रोग दूर हो जाते हैं, वहीं इसका इस्तेमाल कुछ लोग वशीकरण में भी करते हैं। इसका रत्न धारण करने के भी कई चमत्कारिक लाभ हैं। सुरमा लगाने से जहां व्यक्ति किसी की नजर से बच जाता है, वहीं उसकी आंखें भी तंदुरुस्त रहती हैं। यह एक चमत्कारिक पत्थर होता है।

3. गुड़-चने और सत्तू का सेवन : 
प्राचीनकाल में लोग जब तीर्थ, भ्रमण या अन्य कहीं दूसरे गांव जाते थे तो साथ में गुड़, चना या सत्तू रखकर ले जाते थे। घर में भी अक्सर लोग इसका सेवन करते थे। यह सेहत को बनाए रखने में लाभदायक होता है। हालांकि आजकल लोग इसका कम ही सेवन करते हैं। सत्तू पाचन में हल्का होता है तथा शरीर को छरहरा बना देता है। जल के साथ घोलकर पीने से बलदायक मल को प्रवृत्त करने वाले, रुचिकारक, श्रम, भूख एवं प्यास को नष्ट करने वाले होते हैं। 
कई बार कब्ज की समस्या को दूर करने के लिए लोग गुड़ और चने खाना पसंद करते हैं, लेकिन इसके अलावा गुड़ और चना एनीमिया रोग दूर करने में काफी मददगार साबित होता है। कहते हैं कि 'जो खाए चना, वह रहे बना'। गुड़ और चना न केवल आपको एनीमिया से बचाने का काम करते हैं, बल्कि आपके शरीर में आवश्यक ऊर्जा की पूर्ति भी करते हैं। शरीर में आयरन अवशोषि‍त होने पर ऊर्जा का संचार होता है जिससे थकान और कमजोरी महसूस नहीं होती।
4. तुलसी और पंचामृत का सेवन : 
प्रतिदिन तुलसी और पंचामृत का सेवन करना चाहिए इसीलिए प्राचीनकालीन घरों के आंगन में तुलसी का पौधा होता था। हालांकि आज भी कई लोगों के घरों में यह मिल जाएगा लेकिन लोग इसका कम ही सेवन करते हैं। वे तुलसी को भगवान को चढ़ा देते हैं जबकि इसके पत्ते को तांबे के लोटे में डालकर रखें और कुछ घंटों बाद उस जल को पीकर तुलसी के पत्ते को खा लेना चाहिए। ऐसा करने से जीवन में कभी भी कैंसर नहीं होगा और न ही किसी भी प्रकार का अन्य रोग।
तुलसी का पौधा एक एंटीबायोटिक मेडिसिन होता है। इसके सेवन से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में बढ़ोतरी होती है, बीमारियां दूर भागती हैं और शारीरिक द्रव्यों का संतुलन बना रहता है। इसके अलावा तुलसी का पौधा अगर घर में हो तो मच्छर, मक्खी, सांप आदि के आने का खतरा नहीं होता।
5. दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन करना : 
आजकल दोनों हाथ जोड़कर 'नमस्ते' कहने का प्रचलन नहीं रहा। लोग एक-दूसरे से हाथ मिलाते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें, तो 'नमस्ते' मुद्रा में हमारी अंगुलियों के शिरो बिंदुओं का मिलान होता है। यहां पर आंख, कान और मस्तिष्क के प्रेशर प्वॉइंट्स होते हैं।
दोनों हाथ जोड़ने के क्रम में इन बिंदुओं पर दबाव पड़ता है। इससे संवेदी चक्र प्रभावित होते हैं जिसकी वजह से हम उस व्यक्ति को अधिक समय तक याद रख पाते हैं। साथ ही, किसी तरह का शारीरिक संपर्क न होने से कीटाणुओं के संक्रमण का खतरा भी नहीं रहता। दूसरी ओर ऐसा करने से हमारे मन में उस व्यक्ति के प्रति तो अच्छे भाव आते ही हैं, उसके मन में भी हमारे लिए आदर उत्पन्न होता है।
6. पीपल में जल डालना : 
पीपल का पेड़ सबसे ज्यादा ऑक्सीजन का उत्पादन करता है। जहां अन्य पेड़-पौधे रात के समय में कार्बन डाई ऑक्साइड गैस का उत्सर्जन करते हैं, वहीं पीपल का पेड़ रात में भी अधिक मात्रा में ऑक्सीजन मुक्त करता है। इसी वजह से बड़े-बुजुर्गों ने इसके संरक्षण पर विशेष बल दिया है।
पुराने जमाने में लोग रात के समय पीपल के पेड़ के नजदीक जाने से मना करते थे। उनके अनुसार पीपल में बुरी आत्माओं का वास होता है, जबकि सच तो यह है कि ऑक्सीजन की अधिकता के कारण मनुष्य को दम घुटने का अहसास होता है। जिस घर के पास पीपल का वृक्ष होता है, वहां के लोग निरोगी रहते हैं।
7. महत्वपूर्ण व्रत :
हालांकि अब यह परंपरा महिलाओं तक ही सीमित रह गई है। एकादशी, प्रदोष, चतुर्थी, पूर्णिमा और अमावस्या का व्रत रखना क्यों महत्वपूर्ण है? इसका उल्लेख पुराणों में मिलता है। ये चन्द्र से संबंधित व्रत हैं। इन विशेष दिनों में व्यक्ति के शरीर और मन में बदलाव होते हैं।
यदि इन दिनों में व्यक्ति सिर्फ फलाहार ही करे, तो निश्चित ही वह सभी तरह की बाधाओं से मुक्त होकर सुखी जीवन-यापन कर सकता है। प्राचीनकाल में पहले व्यक्ति इन दिनों व्रत रखता ही था।
8. पारंपरिक पोशाक:

हालांकि आजकल कोई परंपरागत पोशाक नहीं पहनता। पहले के लोग ढीले-ढाले वस्त्र पहनते थे, जैसे कुर्ता-पायजामा, धोती-कुर्ता, पगड़ी, साफा या टोपी, खड़ाऊ, सूती या खादी के कपड़े आदि। इन्हें पहनकर एक अलग ही शांतिदायक अनुभव होता था। हालांकि आजकल तंग, भड़कीले और शरीर को दुख देने वाले कपड़े ही पहने जाते हैं। कुछ कपड़े तो ऐसे होते हैं जिसे पहनकर न तो आप ठीक से बैठ सकते हैं और न ही सो सकते हैं। खड़े भी कपड़ों के अनुसार ही रहना होता है। 


जो वस्त्र आपके तन को सुख दे या तन को अच्छा लगे, वही खास होता है। दूसरी बात, वस्त्र मौसम के अनुकूल भी होना चाहिए। प्राचीन लोगों ने सोच-समझकर ही वस्त्रों का निर्माण किया था। वे चाहते तो पहले ही तंग पैंट और शॉर्ट शर्ट बना सकते थे। यह कोई बहुत सोचने-समझने का काम नहीं था। 
9. लोक नृत्य-गान, लोकभाषा, लोक इतिहास और लोक व्यंजन : 
भारतीय समाज के लोकनृत्य, गान, भाषा और व्यंजन में कई राज छुपे हुए हैं। इनका संरक्षण किए जाने की जरूरत है। आप जिस भी क्षेत्र में रहते हैं वहां की भाषा से प्रेम करें। वहां की भाषा के मुहावरे, लोकोक्ति, लोकनृत्य, लोक-परंपरा, ज्ञान, व्यंजन आदि के बारे में ज्यादा से ज्यादा ज्ञान हासिल करें। वक्त के साथ यह सभी खत्म हो रहा है। उदाहरण के लिए मालवा से मालवी और कश्मीर से कश्मीरियत खत्म होती जा रही है।
क्या आप सोच सकते हैं कि यदि कश्मीरियत होती तो वहां कितनी शांति, सुख और सुगंध होती। सचमुच ही कश्मीर के लोगों में अब कश्मीरियत नहीं बची। जो क्षेत्र अपनी लोक-परंपरा और भाषा को खो देता है, देर-सबेर उसका भी अस्तित्व समाप्त हो जाता है। वहां एक ऐसा स्वघाती समाज होता है, जो अपनी पीढ़ियों को बर्बादी के रास्ते पर धकेलता रहता है। यदि ऐसा नहीं होता तो आधुनिकता के नाम पर अपनी लोक-परंपरा खो रहे लोग भी एक दिन यह देखते हैं कि हमारे क्षेत्र में हम अब गिनती के ही रहे हैं। 

10. परंपरागत नुस्खे :

 पहले के लोगों को इसका बहुत ज्ञान होता था लेकिन वर्तमान पीढ़ी यह ज्ञान प्राप्त नहीं करती, क्योंकि अब उनकी दादी और नानी या दादा और नाना भी वैसे नहीं रहे, जो अपने अनुभव और ज्ञान को अपनी पीढ़ियों में हस्तांतरित करें। गाय के दूध में हींग या मैथी मिलाकर पीने से कब्ज की शिकायत दूर हो जाती है। जन्म घुट्टी पिलाने से बच्चा स्वस्थ हो जाता है।

हालांकि 'गूगल बाबा' आजकल सबकुछ बता देता है फिर भी कुछ ज्ञान ऐसा होता है, जो कोई नहीं बता सकता। यह ज्ञान हमें परंपरा और अनुभव से ही प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ, एक व्यक्ति को 12 महीने सर्दी-जुकाम बना रहता था। उसने सब तरह का इलाज कराया लेकिन ठीक नहीं हुआ। एक बार उसने दादी और नानी के नुस्खे वाली किताब में पढ़ा कि शाम को सोने के 3 से 4 घंटे पहले पानी पीना बंद कर दें और सुबह उठने के 3 घंटे तक पानी न पीएं। उसने ऐसा ही किया और उसकी सर्दी-जुकाम में 70 प्रतिशत उसे लाभ मिला। इस तरह के हजारों नुस्खे हैं, जो सिर्फ सेहत संबंधी ही नहीं हैं, वे दुनियादारी के नुस्खे भी हैं।

हालांकि उपरोक्त के अलावा भी सैंकड़ों ऐसी परंपरागत बातें हैं जिन्हें अपनाकर आप अपना जीवन बदल सकते हैं। जैसे चुल्हें की बनी रोटी खाना, पीतल के बर्तन में भोजन और तांबे के ग्लास में पानी पीना। पानी भी मटके का पीना, ऐसे बिस्तर पर सोना जो परंपरागत हो। लकड़ी का पलंग या खाट, जल्दी सोना और जल्दी उठान। उत्तर, ईशान या पश्चिम मुखी मकान में ही रहना। प्रतिदिन प्रात: काल भ्रमण करना आदि। हालांकि कोल्ड्रिंक और कोक के जमाने में कोई मोसंबी और नींबू का रस क्यों पीना चाहेगा। आम का रस भी नकली मिलने लगा है। सोमरस तो कभी का परंपरा से बाहर हो गया है। 





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