मेरी माँ को बीपी के तीन या चार जबर्दस्त अटैक हो चुके हैं। संयोग से जब भी ऐसा हुआ मैं घर में था और जान बचा ली। वैसे बता दूं मेरी माँ को दवाइयों से इतनी ज्यादा चिढ़ है कि बीपी की दवाई खाती ही नहीं इसलिए खतरा 24 घंटे बना रहता है। हाल ही की बात है मेरी माँ रसोई में काम कर रही थी, और मैं टीवी देख रहा था। सबकुछ नार्मल था। अचानक माँ ने कहा कि अभी उनके मुंह से थोड़ा खून आया है, उन्होंने बेसिन में थूका और कुल्ले कर लिए। सच तो ये है कि घबरा गया लेकिन मैं इस बात को लेकर एकदम आश्वश्त था कि अगर मैं कहूंगा कि अस्पताल चलो तो वो नहीं जाएगी। मैंने फिर भी हिम्मत करके कहा कि माँ चलो अस्पताल चलते हैं।
माँ ने कहा कि ... जरुरत नहीं है शाम तक देखेंगे।
माँ को दूसरी बार मुंह से तेज खून जैसा आया, उसके बाद उसने मुझे बताया नहीं कि मैं घबरा जाऊंगा। मैं दूसरे कमरे मे था। अचानक माँ ने आवाज दी, जल्दी इधर आना...
किचन में गया जहां वो काम कर रही थी तो दिल ही बैठ गया, वो नीचे बैठी थी... और नाक से खून बहता चला जा रहा था... उसने सर को ऊपर की तरफ करके रखा था। मैं माँ को सहारा देकर बेड पर ले गया और लिटा दिया। घर में मैं अकेला था।। जल्दी से अपने मकान मालिक को आवाज दी। उनको ऑटो रिक्शा लाने को कहा.. वो रिक्शा लाने को चले गए।
अस्पताल वहाँ से सिर्फ 100 मीटर की दुरी पर था पर हालात देखिये कि बिना ऑटो के कैसे जाता। मैंने अपने भावनाओ को पूरी तरह दबा लिया था और ऊपर से नार्मल दिखने की कोशिश करता रहा कि ... माँ कुछ नहीं होगा.. होता है ऐसा.. अभी चलते है डॉक्टर के पास।
ऑटो आने में देर हो रही थी। कोई ऑटो वाला 100 मीटर जाने को क्यों राजी होगा ? लेकिन फिर एक आया.. माँ को हमलोगों ने गोद में उठाया और ऑटो में डाले.. मगध मेडिकल कॉलेज अस्पताल पहुंचे... स्ट्रेचर पर लिटाया... खून का बहाव जारी था.. माँ तो ये ही कह रही थी.. शायद अब मैं नहीं बचूंगी.. बेटा...
और ये सुनकर मेरी ऊपर क्या गुजरती थी, खैर.. नजदीकी अस्पताल के चलते आ तो गया पर यहाँन कोई डॉक्टर ही नहीं था। प्रशिक्षु डॉक्टर थी एक उसको कहा.. उसने एक कागज़ आगे कर दिया इस फॉर्म को भरिये...
अरे पर पहले इलाज शुरू तो करो...
सॉरी पहले फॉर्म भरने पड़ेंगे...
मैडम देखिये मेरी माँ के नाक से तेज खून की ब्लीडिंग हो रही है.. मेरी माँ यही इसी अस्पताल से रिटायर हुयी हैं.. कुछ तो कीजिये।
तब जाके उसने देखा.. फिर जाकर बैठ गयी...
दोस्तों .. सच पूछो तो मैं सरकारी अस्पताल में आकर फंस गया था.. माँ की हालत ऐसी थी कि अब उसे किसी दूसरे जगह प्राइवेट अस्पताल में ले जाना खतरे से खाली नहीं था, फिर से ऑटो बुलाओ.. फिर से कहीं ले जाने के दरम्यान अगर कुछ हो जाता तो ..? क्योंकि ऐसी हालत में समय का महत्त्व होता है। वहाँ काम करने वाली नर्स, डॉक्टर को मेरी समस्याओं से रत्ती भर भी मतलब नहीं था।
एक बार मैं चिल्ला भी उठा.. जब ये मर ही जायेगी तो बाद में इलाज करके क्या करोगे ? ? तब उसने कहा डॉक्टर को फोन किया गया है घर से आते ही होंगे ...
अरे पर कुछ प्राइमरी ऐड तो होगा.. कुछ तो करो..
(पर सारे स्टाफ जैसे पत्थर के थे...पत्थर के... )
हताश निराश माँ का हाथ पकड़ के हिम्मत देता रहा... करीब आधे घंटे से ऊपर पौने घंटे लगे... इस बीच कई बार लगा कि जोर जोर से रोने लग जाऊं, पर बीपी के मरीज के सामने कभी रोने का काम नहीं करना चाहिए, इतना मेरा मानना है।। डॉक्टर आया, दवाई मंगवाई.. फिर ऑपरेशन के लिए ले गए.. इतनी देर में परिवार के बहुत सारे लोग आ गए... अब जाके मेंरी जान में जान आयी। ब्लीडिंग रुकी, माँ वहाँ 5 दिन भर्ती रहीं। फिर ठीक हुयी तो वापिस घर ले गए।।
लेकिन सरकारी अस्पताल की निष्ठुरता ने हिला दिया, डॉक्टर्स, नर्स आदि की पत्थरदिली ने विश्वास दिला दिया कि इनकी भावनाएं मरी रहती हैं। ऐसे में कितने ही लोग मर जाते हैं... उसके बाद वहीँ इसी अस्पताल में ऐसा हुआ है जब नर्स, डॉक्टर सभी को दौड़ा दौड़ा कर कई बार पीटा गया है। उसके बाद उलटे ये लोग हड़ताल कर देते हैं कि सुरक्षा चाहिए और इन्साफ चाहिए। सरकार भी संवेदनहीन लोगों का है, इन्हें कोई मतलब नहीं, इस अस्पताल में करोड़ों रुपयों के बंदरबांट जरूर होते है हर साल। कई जिलों को मिलाकर ये एकमात्र बड़ा अस्पताल माना जाता है। अंदाजा इसी से लगाइये कि बरसात में मरीज के परिजन बेड के उपर छाता (umbrella) लगा बैठे रहते है ताकि छत से टपकता पानी मरीज के ऊपर ना गिरे।
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