Sunday 18 October 2015

तस्लीमा नसरीन का वामपंथी लेखकों को तमाचा

तस्लीमा के तरफ से देशद्रोहियों को तमाचा ::::
"भारत के अधिकांश धर्मनिरपेक्ष लोग कट्टर मुस्लिम समर्थक और पूरी तरह से हिन्दू विरोधी हैं। वे हिन्दू कट्टरपंथियों के कामों पर तो विरोध प्रदर्शन करते हैं, पर मुस्लिम कट्टरपंथियों की घृणित कार्रवाइयों का बचाव करते हैं। उन्होंने कहा कि अधिकांश लेखक उस समय चुप थे जब पश्चिम बंगाल में मेरी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाया गया, जब मेरे खिलाफ भारत में पांच फतवे जारी किए गए, जब मुझे पश्चिम बंगाल से बाहर निकाल दिया गया, जब मैं दिल्ली में घर में महीनों कैद रही, मुझे भारत छोडऩे को मजबूर किया गया और मेरे सीरियल पर भी रोक लगाई गई।

मैंने जीवन के अधिकार के लिए और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए अकेले ही रहकर संघर्ष किया। भारत के धर्मनिरपेक्ष लेखक उस समय न केवल चुप थे बल्कि सुनील गांगुली और शंख घोष जैसे प्रख्यात लेखकों ने तो पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य से यह अपील तक की कि वे मेरी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाएं।

वर्ष २०१३ में मुस्लिम धर्मान्ध लोगों द्वारा पश्चिम बंगाल के एक गांव में बहुत से हिन्दुओं के घर जला दिए गए थे। उन्होंने कहा कि भारत में यदि मुसलमानों को निर्दयता से प्रताड़ित किया गया होता तो वे भारत छोड़कर पडोसी मुस्लिम देशों की ओर रुख कर गए होते जिस तरह से हिन्दू अल्पसंख्यक निर्दयता से प्रताड़ित किये जाने पर विभाजन के बाद पाकिस्तान और बांग्लादेश छोड़कर भारत आ गए थे।

इस साक्षात्कार की सबसे विशेष बात यह रही कि तस्लीमा नसरीन ने हाल ही में साहित्यकारों द्वारा अपने साहित्य पुरस्कार लौटाए जाने के मुद्दे पर उनकी पोलपट्टी खोलते हुए कहा है कि भारत के धर्मनिरपेक्ष लेखक अपनी असहमति को लेकर दोहरे मानक अपनाने के दोषी हैं। एक तरफ वो कट्टर मुस्लिम समर्थक हैं तो दूसरी तरफ घोर हिन्दू विरोधी। इस बातचीत में तस्लीमा नसरीन ने देश के उन तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवियों को बेनकाब किया है, जिनकी विचारधारा कभी भारत विरोधी रहती है तो कभी हिन्दू विरोधी। आज वो लोग देश में साम्प्रदायिकता और असहिष्णुता बढ़ाने का मोदी जी पर झूठा आरोप लगा रहे हैं, जबकि सच ये है कि कांग्रेस के शासनकाल में साम्प्रदायिकता और असहिष्णुता आज से कहीं ज्यादा थी। कांग्रेस के शासनकाल में वामपंथी और नेहरूवादी विचारधारा न सिर्फ पूजित होती रही, बल्कि पुरस्कृत भी। उस समय धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हिन्दू विरोधी प्रचार-प्रसार अपने चरम पर था। चाहे प्रोफेसर कलबुर्गी हों, कामरेड पानसरे हों या डा नरेन्द्र दाभोलकर हों, तीनों ही वामपंथी विचाधारा के थे और मूर्तिपूजा की घोर मुखालिफत करते थे। दो हजार चौदह में प्रोफेसर कालबुर्गी ने मूर्ति पूजा के विरोध में एक बेहद आपत्तिजनक बयान दिया था। तब उन्होंने कहा था कि बचपन में वो भगवान की मूर्तियों पर पेशाब करके ये देखा करते थे कि वहां से कैसी प्रतिक्रिया मिलती है। उनके इस बयान ने करोड़ों मूर्तिपूजकों की भावनाओं को आहत किया था। वो लिंगायत समाज के अराध्य बासव और उनकी पत्नी व बेटी के बारे में भी विवादित लेखन किये थे, जिसका लिंगायत समाज के द्वारा भारी विरोध करने पर उन्हें लिंगायत समुदाय से माफ़ी मांगनी पड़ी थी।

दरअसल सच ये है कि मोदी जी के सत्ता में आने के बाद से हिंदूवादी संगठनों के मजबूत होने से हिन्दू-विरोधी अभियान पर अंकुश लगा है। यही सबसे बड़ी तकलीफ सेकुलर बुद्धिजीवियों को है। साहित्य अकादमी और अन्य पुरस्कार वापस कर वो एक तरह से अपनी खीझ मिटा रहे हैं और अपना गुस्सा जाहिर कर रहे हैं। कोई उनसे पूछे कि देश में सम्प्रायिक सदभाव कायम करने के लिए वो लोग कितने घरों में गए हैं या फिर साम्प्रदायिकता से पीड़ित कितने लोंगो की उन्होंने मदद की है?

कांग्रेस और अन्य दलों के शासनकाल में सुख-सुविधा और पुरस्कार सम्मान भोगने के आदि हो चुके वो लोग इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि मोदी सरकार के शासनकाल में उन्हें ये सब आसानी से मिलने वाला नहीं है।
(तस्लीमा नसरीन साक्षात्कार के अंश )

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